Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 486
________________ पद्मसुन्दरस्ररिविरचित सर्वभावेष्वनेकान्तो धर्माणां युगपद्यदा । स्वस्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्द्रव्यगुणादिभिः ॥ १४१ ॥ सर्वं स्यादस्ति स्यान्नास्तीत्यस्ति नास्ति द्वयं समम् । Faraaraana स्यादस्त्यवक्तव्यमेव तत् ॥ १४२ ॥ नास्त्यवक्तव्यमेव स्यात् क्रमेण च बुभुत्सया । स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमादेशात् सप्तधा भवेत् ॥ १४३ ॥ परिणामः क्रमेणैषामक्रमेण तथा भवेत् । गुणपर्यायवद् द्रव्यं गुणास्तु सहभाविनः ।।१४४।। पर्यायाः क्रमजाः सत्वं प्रौव्योत्पादव्ययात्मकम् । अनन्तधर्मव्याख्यायां सापेक्षा नयसंहतिः ॥१४५॥ नयः सदिति विज्ञानात् सदेवैकान्तदुर्नयः । तथा स्यात् सत्प्रमाणं स्यात् सर्वं स्याद्वादवादिनाम् ॥ १४६ ॥ Jain Education International सप्तभङ्गीप्रसादेन शतभङ्ग्यपि जायते । इति मीमांसया तत्त्वं जानतो ज्ञानदर्शने ॥ १४७॥ व्यवहारात्मके स्यातां ते पुनर्निश्चयात्मके । स्वसंवेद्यचिदानन्दमयस्वात्मावलोकनात् ॥१४८।। । (१४१) सभी वस्तु अनेकान्तात्मक हैं । एक ही समय स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव से वस्तु सत् है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से वस्तु असत् है । इस प्रकार सभी द्रव्य, गुण आदि को लेकर विचार किया जा सकता है । (१४२१४३) अमुक दृष्टि से वस्तु है, अमुक दृष्टि से वस्तु नहीं है । दोनों दृष्टियों से, क्रम से, वस्तु हैं और नहीं भी है । दोनों ही दृष्टियों से एक साथ वस्तु का वर्णन करना मुश्किल है अर्थात् वस्तु अवक्तव्य है । वस्तु है और अवक्तव्य है । वस्तु नहीं है और अवक्तव्य वस्तु है, नहीं है और अवक्तव्य है । इस तरह वस्तु का वर्णन सप्तभङ्गीरूप सात वाक्यों से होता है । (१४४) (द्रव्यों का) परिणाम क्रम से और अक्रम से होता है । द्रव्य गुणपर्यायात्मक है । गुण सहभावी होते हैं । (१४५) पर्याय क्रम से होते हैं । वस्तु का जो सत्त्व है वह उत्पाद, व्यय और धीव्य से व्याप्त है । वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं । अतः वस्तु का वर्णन अपेक्षाभेद (नयों) से होता है । (१४६ ) " है " - ऐसा ज्ञान नय है । " है ही” – ऐसा ज्ञान दुर्नय है । और "अमुक अपेक्षा से है"- ऐसा ज्ञान प्रमाण है । यह सब स्यादवादवादियों को मान्य है । (१४७ - १४८) सप्तभङ्गी के आधार पर शतभङ्गी भी हो सकती है । ज्ञान और दर्शन जब इस प्रकार की मीमांसा के द्वारा तत्त्व को जानते हैं तब वे व्यवहारात्मक कहलात हैं । जब वे स्वसंवेद्य चिदानन्दमय अपनी आत्मा को देखते हैं तब वे ज्ञान और दर्शन निश्चयात्मक कहलाते हैं । १६ १२१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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