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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य चक्ररस्य द्विषच्चक्र क्षयमापादितं क्षणात् । मार्तण्डकिरणैस्तीक्ष्णैर्हिमानीपटलं यथा ॥१५७॥ यमनः स्वबलव्यूहप्रत्यूहं वीक्ष्य साधा । जज्वाल ज्वालजटिलः प्रलयाग्निा वोज्छिखः ॥१५८॥ धावति स्म हयारूढः सादिभिर्निज सैनिकैः । यमनो यमवत् क्रुद्धः परानाकं व्यगाहत ॥१५९॥ . धनुाघोषसंसक्त जय घोषभोषणाः । यमनस्य भटाः सर्वासिारेणाभ्यषणयन् ॥१६॥ ततः प्रहसनिःस्वानगम्मीरधान भीषणः । चलदाश्वीयकल्लोलः प्रवृत्तोऽयं रणाणवः ॥१६१॥ रणेऽसिधागसङ्घनिष्ठ्याग्निकणानले । अनेकशरसङ्घातसम्पातोल्कातिदारुणे ॥१६२॥ अभिशस्त्रमय ध वनर्व-तो गर्वदुर्वहाः । प्राक् कशाघाततस्तीक्ष्णा न सह-ते पराभवम् ॥युग्मम् ||१६३॥ चलदश्वखुरक्षुण्णरेणुधारान्धकारिते । नासीत् स्वपरविज्ञानमत्र घोरे रणाङ्गणे ॥१६४॥
(१५७) इस राजा के चक्रों द्वारा शत्रुराजा का चक्र क्षण में ही इस प्रकार नष्ट कर दिया गया जिस प्रकार सूर्य को प्रचण्ड किरणों से बर्फ का समुदाय नष्ट हो जाये । (१५८) यमनगजा अपनी सेना के व्यूह में उपस्थित विन को देखकर क्रोधित होकर ज्वालाओं से व्याप्त और ऊर्ध्वगामी शिखाओं वाली प्रलयकाल की अग्नि के समान मानों जलने लगा। (१५९) अपने अश्वारोही योद्धाओं के साथ स्वयं अश्वारोही होकर यमराज की भाँति क्रद्ध राजा यमन दौड़ा और शत्रु की सेना में प्रवेश कर गया। (१६०) धनुष की ज्या की टड्कार से मिश्रित विजय की घोषणा से भीषण यमन के योद्धा सब प्रकार के बल से आक्रमण कर बैठे । (१६१) तदनन्तर पारस्परिक मारकाट की गंभीर ध्वनि से भीषण चञ्चल अश्वकल्लोलन (तरंगों) बाला वह रणरूपी सागर शुरू हुआ। (१६२..१६३) तलवार की धार की रगड से उत्पन्न अग्निकणवाले और अनेक बार्गों के गिरने से अतीव भयंकर लगने वाले उस रणागण में, चाबुक की चोट से तेज चलने वाले गर्वीले घोडे शत्रुकृत अपमान को सहन नहीं कर पाते थे। (१६४) दौड़ते घोडे के खुरों से चूर्णित रजधारा से अन्धकारयुक्त उस भयंकर संग्राम में अपने पराये का ज्ञान नहीं होता था ।
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