Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 444
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित प्रचलत्तङ्गतरङ्गशिखा प्रग प्रवणा जलधावपि सार्थपाः । विघटिताखिलविघ्नभयाः प्रया न्स्यथ गृहं भवतः स्म णाद् विभो ! ॥१९२॥ व्रण-जलोदर-शूल-भगन्दर क्षवथु भस्मक-तिरुज दितः । तव पदस्मरणा' दभाग्जनो भवति स इतमेव निरामयः । १९३।। विविधबन्धनबद्ध नो: निाडकोटिनिघृष्टपतयः । भवति बन्धनमोक्षण दक्ष ! ते स्मरगतश्च्युतानबन्धबन्धनः ॥१९४॥ ___ मायद्वा णसिंहभोगिदह नाम्भोधिप्रचण्डाहवा तङ्कोदाममहाभयानि भविनां वन्नाममन्त्रस्मृतेः । त्वय्येवातिसमात 'कमनमां शाम्यन्स्यथ प्रत्युत प्रादुःषन्त्यथ भूरिभाग्य पुभगाः सद्भोगभाजः श्रियः ॥१९५॥ इतिश्रीमत् ारापरपरमेष्ठिपदार वे दमक दिसुन्दरसास्वादम्प्रीति भव्यभव्ये पं. श्रीपद् - मेरुविनेय पं० श्रीपद्मसुन्दरविरचते श्रीपार्श्वनाथमहाकाव्ये श्रीपाश्र्ववर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः । .. (१९२) हे प्रभो !, समुद्र में भी चञ्चल, उन्नत, तरंगों की शिखाओं के अग्रभाग में रहे नौकावाले सार्थवाह (यापारी) सम्पूर्ण विघ्नभयों को नष्ट करके स्मरण मात्र से ही सकुशल अपने घर लौट जाते हैं । (१९३) घाव, जलोदर, शूल, भगन्दर, खाँसो, धमन आदि रोगों से पीड़ित व्यक्ति आपके चरणकमल की स्मरणरूप औषधि के सेवन से शीर ही रोगरहित अर्थात् स्वस्थ हो जाता है। (१९४) हे बन्धन को छुड़ाने में कशल भगवान ! अनेक प्रकार के बन्धनों में बँधा हुआ, जिसके दनों पैरों में बेड़ियाँ पढ़ी हों, ऐसा व्यक्ति आपके स्मरण मात्र से सम्पूर्ण बन्धन से रहित हो जाता है । (१९५) मदझर हाथी, सिंह, सर्प अग्नि, समुद्र, प्रचण्ड युद्ध के भयंकर आतंक ये सांसारिक लोगों के उत्कट महाभय आपके माम मात्र के स्मग्ण से शान्त हो जाते हैं। जो आप में हो अपना मन लगाते उन हो व्यक्तियों को बहुत भाग्य से सुन्दर और अच्छे भोगवाली लक्ष्मी प्रकट होती है। इति श्रीमान् परमपरमेष्ठ के चरणकमल के मकरन्द के सुन्दर रस के स्वाद से - भव्य-नों को प्रसन्न करने वाला, पं० श्री पदममेरु के शिष्य पं० . श्री पद्मसुन्दर कवि द्वाग रचित श्रीपाश्र्वनाथमहाकाव्य में 'श्री पार्श्ववर्णन' नामक चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ | . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502