________________
पञ्चमः सर्गः
अथो नृपः पार्श्वकुमारमादरानिनाय गेहे विमयेन नीतिवित् । व्यधात् सपय विविधामनन्यधी
महत्सु चातिथ्यमिदं हि गौरवम् ॥ १॥ स्थितः स सौधे वसुधाधिपार्षि सुधासागुरुधूपवासिते ।
सुखेन कालं गमयाम्बभूव तत्कृतार्हणा गौरवम किपूजितः ||२||
प्रसेनराज्ञस्तमया नयस्पृशोऽ
Jain Education International
प्यगण्य लावण्यसुधा तरङ्गिणी । सुवर्णच पेय सुमप्रभावती
बभूव नाम्ना वपुषा प्रभावती ॥३॥ सुपलावण्य वभाविभूतिभिः
प्रवर्द्धमाना कि सैन्दवी कला । दिने दिने लधमहोदया बमौ
जनादवधायिनी कनी ॥४॥
ध्रुवं विधात्रा भुवि निर्मिता सुर
स्त्रियां समुच्चित्य सुरूपसम्पदम् । तदन्यथा चेदनया सुराङ्गना -
तुला न काचिद् ददृशे जगत्यपि ॥ ५॥
(१) अनन्तर नोतिवेत्ता राजा प्रसेनजित् पार्श्वकुमार को विनयपूर्वक घर ले आये और अनन्यचित्त होकर उनका पूजा- सरकार किया | बड़े आदमियों का आतिथ्य हो गोख है । (२) जे पादर्वकुमार महाराजा के द्वारा अर्पित, चूने मे श्वेत, अगुरु धूप से सुत्रासित भवन में रहने लगे तथा पूजा सत्कार से भक्तिपूर्वक सत्कृत होकर सुख से समय बिताने लगे । (३) नोनि महाराजा प्रसेनजित् की लावण्यरूप सुधा की अगणित तरङ्गों से युक्त, चम्पा के पुरूष और सुवर्ण की कान्तिबाली, नाम से और शरीर से प्रभावती नामक कन्या थी । (४) वह रूप. लावण्य की कान्ति की समृद्धि से चान्द्री कला की भाँति बढ़ती हुई प्रतिदिन महोदय को प्राप्त करने वाली और संसार के लोगों को आह्लादित करने वाली कन्या शोभित हो रही थी । (५) निश्चित रूप से, विधाता ने पृथ्वी पर उस कन्या को देवाङ्गनाओं की रूपसम्पदा को चयन करके बनाया । यह (कथन) अन्यथा हो तो इसके ( प्रभावती के साथ देवाङ्गना की तुलना संसार में दृष्टिगत नहीं होती ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org