Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 482
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित बन्धहेतोरभावात् स्यान्निर्जराकरणादपि । यः कृत्स्नकर्मनिर्मोक्षो मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः ॥१०९॥ तस्योपायस्त्रिधा सम्यग्ज्ञानदृग्वृत्तलक्षणः । जीवाजीवौ पुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराः ॥११०॥ बन्धमोक्षौ नवैते स्युः पदार्थाः सत्यतामिता । भव्योऽभव्यस्तथा मुक्तस्त्रिधा जीवनिरूपणा ॥१११॥ अजीवः पञ्चधा धर्माधर्मकालखपुद्गलाः । गत्युपग्रहकृद्धो मत्स्यानां सलिलं यथा ॥११२।। अधर्मः स्थित्यवष्टम्भः तरुच्छाया नृणामिव । अवगाहप्रदं व्योमाऽमृत यद् व्यापि निष्क्रियम् ।।११३।। वर्तनालक्षणः कालः सा तु स्वपरसंश्रयैः । पर्यायैवजीर्णत्वकरणं वर्तना मता ॥११४॥ स मुख्या व्यवहारात्मा द्वधा कालः प्रकीर्तितः । मुख्योऽसंख्यैः प्रदेशैः स्वैश्चितो मणिगणेरिव ॥११५।। (१०९) बन्ध के हेतुओं का अभाव होने के कारण कर्मो से अत्यन्त मुक्ति होती है । निर्जरा से भी कर्म से अत्यन्त सुक्ति होती है। यही मोक्ष है । मोक्ष अनन्त मावासक है। (११०- १११) मोक्ष का उपाय सभ्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, और सम्यक तीनों मिलकर हैं। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, जय मोक्ष-ये नौ तत्त्व हैं। जीव के तीन भेद हैं-भव्य, अभव्य व मुक्त । (११२-११३) अजीव पाँच प्रकार का है-धर्म, अधर्म, काल, आकाश व पदगल । धर्म गति का सहायक कारण है । उदाहरणतः जसे जल मत्स्य की गति में सहायक होता है वैसे धर्म (जीव और पुद्गल की) गति में सहायक होता है । अधर्म स्थिति का सहायक कारण है। मुसाफिर की स्थिति में जिस प्रकार तरु की छाया सहायक होती है उसी प्रकार (जीव और पुद्गल की स्थिति में) अधर्म सहायक है। आकाश द्रव्यों को रहने की जगह देता है । वह अमूर्त है, व्यापक है, निष्क्रिय है । (११४) काल का लक्षण वर्तना है । स्वाश्रित पर्यायों के द्वारा या पराश्रित पर्यायों के द्वारा नवस्वजीर्णत्व करना ही वर्तना मानी गई है। (११५) काल दो प्रकार का कहा गया है-व्यवहारकाल व मुख्यकाले । जो मुख्यकाल है वह अपने असख्यप्रदेशों का मणियों के ढेर के समान ढेर है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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