Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 460
________________ पासुन्दरसूसिविरक्ति सर्वे भोगास्तावदापातरम्याः पर्यन्ते ते स्वान्तसन्तापमूलम् । तद्धानाय ज्ञानिनां दागू यतन्ते भोगान् रोगानेव मत्वाऽऽसतत्त्वाः ॥७॥ मन्येतासौ सौख्यमायासमात्र भोगोद्भूतं श्वा दशम्नस्थि यवत् । अज्ञानात्माऽसंविदानः स्वनिम्नं __ ब्रह्माद्वैतं संविदानन्दसान्द्रम् ॥७९॥ स्पर्शाद्धस्ती भक्ष्यलौल्याज्झषात्मा ____ गन्धाद् भृङगो दृष्टिलौल्यात् पतङगः । गीतासगाज्जीवनाशं कुरङ्गो नश्यत्येतान् धिक् ततो भोगसङगान् ॥८॥ कर्मोद्भूतं यत् सुखं यच्च दुःखं सर्व दुःखं तद्विदुर्दुःखहेतोः । यद्वा भोज्यं स्वादपि स्याद् विषाक्तं पर्यन्ते तत् प्राणविघ्नाय सर्वम् ॥८॥ तस्माद् ब्रह्मा तमव्यक्तलिङ्ग ___ ज्ञानान तज्योतिरुद्योतमानम् । नित्यानन्दं चिदगुणोज्जम्भमाणं __ स्वात्मागमं शर्मधाम प्रपद्ये ॥८२॥ (८) जिन्होंने तत्त्व समझ लिया है और जो ज्ञानी हैं वे भोगों को रोग ही मानकर उन्हें नष्ट करने के लिए शीघ्र प्रयत्न करते हैं । (७९) जैसे हड्डी को काटता हुआ कुत्ता तजन्य परिश्रम को सुख समझता है, वैसे जो आदमी भोगजन्य केवल परिश्रम को ही सुख समझता है वह अज्ञानी है और वह स्वतन्त्र तथा ज्ञानानंदमय ब्रह्माद्वैत को नहीं जानता । (८०) स्पर्श से हाथी, भक्ष्य की लोलुपता से मछली, गन्ध से भौरा, दृष्टि को लालसा से पतङ्गा, गीत सुनने से हिरण-ये सभी नष्ट हो जाते हैं। अतः भोगासक्ति को धिक्कार है। (८१) कर्मों से उत्पन्न चाहे सुख हो या दुःख हो, वह सब दुःख ही है, क्योंकि वह सब दु:खोरपादक है । अथवा स्वादु वस्तु जो भक्षणयोग्य परन्तु विषाक्त है, अन्त में वह प्राण. चत के लिए ही होती है। (भोजन स्वादिष्ट होने पर भी अगर विषमिश्रित हो तब वह अन्त में प्राणघात करेगा ही)। (८२) अतः अव्यक्तलिङ्ग, ज्ञान की अनन्त ज्योति से प्रकाशमान, निस्यानन्द, आत्मगुणों के पूर्ण प्राकट्य वाले, कल्योण के धाम मीर ब्रह्माद्रेतरूप अपनी आत्मा के सुख को ही मैं प्राप्त करूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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