Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 472
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित १०७ एवं तपस्यतस्तस्य विभ्रतोऽसारङ्गताम् । कियान् कालो व्यतीयायाऽन्यदाऽसौ तापसाश्रमम् ।।४१॥ आगाद् दिवाकरश्चास्तमगान्यग्रोधशाखिनः । बुध्ने तत्रोपकूपं स रात्रौ प्रतिमया स्थितः ॥४२॥ स दध्यौ ब्रह्म चिद्रपमनन्तज्योतिरात्मसात् । तमःपारे स्थितं धाम नित्यमानन्दसुन्दरम् ॥४३।। यदाप्य भिद्यते ग्रन्थिश्छिद्यन्तेऽखिलसंशयाः । क्षयेऽप्यक्षयमद्वैत तद्धाम शरणं श्रितः ॥४४॥ - इतः स कमठात्मा तु मेघमाल्यसुराधमः । दृष्टवा स्वावधिना वैरं सस्मार स्मयपूरितः ॥४५॥ कृताः क्रोधोद्धरेणैत्य वेताला वृश्चिका द्विपाः । शार्दूलास्तैः शुभध्यानान्नाचालीदचलाचलः ॥४६॥ ततो विचक्रे गगने घनाघनविकुर्वणाम् । एनं निमज्जयामीति निश्चित्यासौ . सुराधमः ॥४७॥ प्रादुरासन्नभोभागे वज्रनिर्घोषभीषणाः । धाराधरास्तडित्वन्तः कालरात्रैः सहोदराः ॥४८॥ (४-१-४२) इस प्रकार तप करते हुए, अनासक्ति को धारण करते हुए उनका कुछ समय व्यतीत हुआ । एक दिन वे तापसाश्रम में आये। उस समय सूर्यास्त हुआ था । वहाँ बड़ के मूल में कुए के पास रात्रि में वे प्रतिमाध्यान में स्थित हो गये। (४३-४४) चिद्रूप, अनन्तज्योतिरूप, अन्धकार से परे स्थित, नित्यानन्द से सुन्दर और भात्मस्वरूप ब्रह्म का उन्होंने ध्यान किया, जिस ब्रह्म की प्राप्ति होते ही (राग, द्वेष आदि की) सब ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं और सब संशय छिन्न हो जाते हैं। क्षय में भी जो अक्षय है ऐसे अद्वैत धाम की उन्होंने शरण ली। (४५) इधर वह कमठात्मा, मेघशाली नामक दुष्ट राक्षस, गर्व से भरा हुआ अपने अवधिज्ञान से पूर्व वैर को स्मरण करने लगा। (४६) (उसने) क्रोधावेश में आकर वेताल, बिच्छ, हाथी, सिंह, आदि बनाये लेकिन पर्वत जसे अचल वे (जिनभगवान् पाव) उनके द्वारा (बिच्छू आदि द्वाग) शुभ ध्यान से चलित नहीं हुए। (४७) तदनन्तर इस पार्श्व को डुबो दूंगा - ऐसा निश्चय करके उस अधम असुर ने आकाश में कृत्रिम घने मेघ को उत्पन्न . किया । (४८) आकाश में वज्र के निर्घोष की तरह भयंकर बिजली युक्त मेघ कालरात्रि के सगे भाई की तरह प्रकट हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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