Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 471
________________ १०६ श्री पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य उचितप्रमिताभीक्ष्ण्यसधर्मावग्रहग्रहः । अनुज्ञातान्नपानाशी तृतीयव्रतभावनाः ॥३४॥ ॥३५॥ स्त्रीणामालोकसंसर्गान् कथाप्राप्रत संस्मृतीः । वर्जयेद् वृष्यमाहारं चतुर्थव्रतभावनाः बाह्यान्तर्गतसङ्गेषु चिदचिन्मिश्रवस्तुषु 1 इन्द्रियार्थेष्वनासक्तिः पञ्चमव्रतभावनाः || ३६॥ धैर्यवत्त्वं क्षमावत्त्वं ध्यानस्यानन्यवृत्तिता I परीषहजयश्चैता व्रतेषूत्तरभावना : ॥३७॥ अष्टमातृपदाढ्यानि सहितान्युत्तरैर्गुणैः । निःशल्यानि व्रतान्येवं भावयन् शुभभावनः ||३८|| ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यात्मकं च यत् 1 पञ्चधा चरणं साक्षाद् भगवानाचरत्तराम् ॥३९॥ धर्म दशतयं सानुप्रेक्षं समितिगुप्तिभिः । युक्तं परीषहजयैः सम्यक् चारित्रमाचरत् ॥ ४०॥ - (३४) उचित स्थानग्रहण, प्रमितस्थानग्रहण, बार बार (अनुज्ञा लेकर) स्थानग्रहण, साधर्मिक के पास से स्थान का ग्रहण और अनुज्ञात अन्न-पान का आहार, ये ( पाँच) तृतीयव्रत (अचौर्य) की भावनाएँ हैं । (३५) स्त्रीदर्शन का वर्जन, स्त्रीसंसर्ग का त्याग, स्त्रीकथा का वर्जन, पूर्वानुभूत रतिविलास के स्मरण का त्याग और कामवर्धक आहार का वर्जन ये ( पाँच) चतुर्थत्रत (ब्रह्मचर्य) की भावनाएँ हैं । ( ३६ ) बाह्येन्द्रिय और अन्तरिन्द्रिय का आकर्षण करने वाले, इन्द्रियग्राह्य सचिस (सजीव) अचित्त (निर्जीव) और सचित्ताचित्त विषयों में (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द मैं ) अनासक्ति ये (पांच) पंचम व्रत (अपरिग्रह ) की भावनाएँ हैं । ( ३७ ) धैर्यवत्ता, क्षमाशीलता, ध्यान की अनन्यवृत्तिता, और परिषह की विजय ये (चार) व्रतों की उत्तर भावनाएँ हैं । (३८) अष्टप्रवचनमाता से (तीन गुप्ति और पांच समितियों से ) आढ्य, उत्तर गुणों से युक्त और शल्यों से (दंभ, भोगलालसा, असत्यासक्ति से) रहित ( पांच मूल ) व्रतों की (अहिंसा आदि की ) भावना शुभभावना वाले वे करते थे । ( ३९ ) ज्ञानात्मक, दर्शनात्मक, चारित्रात्मक, तपस्यात्मक, और वीर्यात्मक जो पांच प्रकार के आचार हैं; उनका साक्षात् आचरण भगवान् करते थे । (४०) (अनित्यानुचिंतन, अशरणानुचिंतन, संसारानुचिंतन, एकत्वानुचिंतन, अन्यत्वानुचिंतन, अशुच्यनुचिंतन, आसवानुचिंतन, संत्ररानुचिंतन, निर्जरानुचिंतन, लोकानुचिंतन, बोधिदुर्लभत्वानुचिंतन और धर्मस्वाख्यातत्वानुचिंतन, ये बारह ) अनुप्रेक्षा से, (पांच) समिति से और (तीन) गुप्ति से युक्त दशप्रकार के धर्म का (क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य - का) वे आचरण करते थे, तथा परीषहजय से युक्त सम्यक् चारित्र का वे आचरण करते थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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