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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य विध्यातमग्निमथ वीक्ष्य तपस्विवयों
दारुण्युपक्षिपति यावदसौ कुठारम् । तावत् कृपार्द्रमनसा प्रभुणा निषिद्धो
ऽप्यभ्युधतः स लघु तद् विददार दारु ॥१॥ तस्माद भुजङगभुज़गीयुगलं कुठार
छेदेन विह्वलतरं निरगाद् विषण्णम् । तस्मै नमस्कृतिमदात् करुणाईचेताः
पौगस्तदाशु कमठाद् विमुखत्वमापुः ॥५२॥ तत्राश्वसेननृपसूनुरनूनसम्पत्
प्रोचे क एष भवतामिह धर्ममार्गः । यदर्मसाधनविधावपि निर्दयत्वं
प्राव्णा समुद्रतरणं खलु तत् समग्रम् ॥५३॥ किं तत् तपो यदिह भूतकृपाविहीनं
कारुण्यमेव तपसः किल मूलमाहुः । तद्धीनमेव संकलं खलु धर्मकृत्यं
स्याद् दुर्भगाभरणतुल्यमनल्पकृच्छ्रम् ॥५४॥ , श्रत्वेति तद्वचनमाह मुनिर्न वेसि
पञ्चाग्निसाधनमिहास्ति तपोऽतिकृच्छ्रम् । तच्चैकपादधरणेन तथोर्ध्वबाहु
स्थित्या स्वयंच्युतदलाधनिलाशनेन ॥५५॥ (११) उस तपस्विश्रेष्ठ ने ज्योंही बुझ गयी अग्नि को देखकर कुठार (कुल्हाड़ी) को लकड़ी पर फेका, त्योंही कृपालु प्रभु ने मना किया, फिर भी उसने तत्पर होकर शीघ्र ही
कि को चीर दिया । (५२) कुठारछेद से उस काष्ठ खण्ड में से दुःखी सर्प-सर्पिणी बोका निकाला । करुणाचित्त वाले प्रभु ने उसे नमस्कार महामन्त्र दिया और उन सभी गभवासियों ने कमठमुनि से मुंह फेर लिया। (५३) वहाँ अश्वसेन महागजा के महान सम्पतिवाले पुत्र पार्श्व ने कहो आपका यह कैसा धर्मपार्ग है कि धर्माचरण कार्य में भी
यताको म्यवहार करते हो ? यह समग्र (धर्मविधि) पत्थर पर बैठकर समुद्र पार करने के समान है। (५४), प्राणियों पर दया रहित यह तप क्या तप है ? कम्णा ही तपस्या का मूल हैं ऐसा लोग कहते हैं । करुणाहीन सम्पूर्ण धर्मकार्य दुर्भगा (विधवा) स्त्री के द्वारा आभूषण धारण करने के समान अतीव निरर्थक है। (५५-५७) उसका वचन सुनकर अनि बोल-तुम अतीव कृष्दकारक पञ्चाग्नि साधन तपस्या को क्या नहीं जानते हो।
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