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पद्मसुन्दरसूरिविरचित
सुपक्वबिम्बप्रतिबिम्बिताधरा
___ कृशाङ्गयष्टिः पृथुपीवरस्तनी । मनोभवेन त्रिजगज्जिगीषुणा
ध्रुवं पताकेव निदर्शिता कनी ॥६॥ स्वरेण निर्भसितमत्तकोकिला
· बभौ सुकण्ठी कलकण्ठनिस्वना । ध्रवं तदालापसुशिक्षिता जगुः ।
कृशाश्विनो गीतिजरीतिजकृतिम् ॥ ७॥ तदीयलालित्यविहारविभ्रम
द्रवाहावस्मितकेलिसौष्ठवम् । विमृश्य तत्ताण्डवशास्त्रमुच्चकै
इचकार नूनं कतमोऽपि सत्कषिः ॥८॥ पदारविन्दे नखकेसरघुती • स्थलारविन्द त्रियमूहतुर्भशम् । विसारिमृद्गुलिस छदेऽरुणे
ध्रुवं तदीये जितपल्लवश्रिणी ॥९॥ विजित्य तत् कोकनद श्रिया स्वया- . ... ऽरुणौ तदीयो चरणौ नु निग्यतुः । विहारलीलाललितेन मन्थरां
गति निजेनेव मरालयोषिताम् ॥१०॥
) पके हुए बिम्बफल के प्रतिबिम्बित अधर घाली, कृशगात्रा, मोटे व विशाल स्तनवाली, त्रिलोक को जीतने की इच्छा वाले कामदेव के द्वारा मानों वह कन्या (अपने रथ की) पताका की भाँति बतलाई गई। (७) (अपनी) आवाज से मतवाली कोयल को भी मात करने वाली वह कलकण्ठी सुकण्ठो शोभित थी। निश्चय ही उसके आलाप से शिक्षित कुशाश्वि (नट लोग) गीतिजन्य रीति की झङ्कार को ध्वनित करते थे। (८) उस कन्या के लालित्य, गति, चेष्टा, भावपूर्ण हाव, स्मित और क्रीडा के सौष्ठव को सोचकर किसी सत्कवि ने उत्तम ताण्डवशास्त्र की मानो रचना की हो। (९) नखरूपी केसर की कान्तिवाले, लम्बी मृदु अगुलिरूप पङ्कडियों वाले और पल्लव की शोभा को पराजित करने वाले उसके अरुणिमायुक्त दोनों चरणकमल स्थलकमल की शोभा को धारण करते थे। (१०) उसके दोनों लाल चरण अपनी कान्ति से रक्तकमल को जीत कर अपनी भ्रमणलीला की सुन्दरता से हंसों की पत्नियों की मन्धर चाल को भी जीत लेते थे।
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