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पद्मसुन्दरसूरिविरचित वसासृग्मांसपकेऽस्मिन् रणान्धौ मन्दरंहसः । रथकट्या महाप ता इव चेरुश्च व नाः ॥१६५ । छिन्नैकपादोऽपि हयः स्वामिनं स्वं समुद्वहन् । जातामर्षोऽ'भशस्त्रां स प्रधावन् युयुधे चिरम् ॥१६६॥ अथो यमनसैन्येन प्रसेन चार्क बम्बवत् । प्रावृतः परवेषेण रेजे राजशिरोमणिः ॥१६७।। गजानीकैगजा युद्ध दन्तादन्ति विधित्सवः । तडित्वन्तः पयोवाहाः प्रावृषेण्या इवाऽऽबभुः ॥१६८।। रणसरसि शराम्भःपूरिते स्वामिदत्त
द्रविणमसृणतैलाभ्यक्त शीर्षाः सुयोधाः । प्रतिभटसुभटोद्यल्खगघाताच्छकल्कैः
कृतसवनविधानाः शुद्धिमीयुः कृतार्थाः ॥१६९॥ हास्तिकं हास्तिकेनैव रथकट्या रथवजैः । सादिभिः सादिसंदोहो युयुधे सुचिरं मिथः ।।१७०॥ कौक्षेयकक्षतच्छिन्ना वीराणां मुण्डमण्डली । कमार्चेव सा रेजे प्रसेनस्य जयश्रियः ॥१७१॥
(१६५) चर्बी, रक्त, मांस से कीचड़ बने इस रणसागर में मन्दवेगवाले रथ के समूह चचल ध्वजाओं वाली नावों की तरह घूम रहे थे । (१६६) एक पैर से कटा हा भी घोडा अपने स्वामी को ले जाता हुआ क्रोधित हो कर शस्त्र के सामने दौड़ता हआ लडने लगता था । (१६७) यमन के सैन्य से घिरा हुआ राजशिरोमणि प्रसेनजित् परिवेष से घिरे हए राजशिरोमणि सूर्यबिम्ब के समान शोभित था । (१६८) हाथियों की सेना के साथ दन्ता. दन्ति युद्ध करते हाथी वर्षाकालीन विद्युत् युक्त बादलों की तरह मानों चमक रहे थे । (१६९) माणरूप जल से परपूर्ण उस रणतड़ाग में अपने स्वामी के द्वारा प्रदत्त द्रव्यरूप चिक्कण तेल से मालिश किये मस्तक वाले योद्धा, पारस्परिक वीरों की खड्गधातरूप शुभ्र चूर्ण से यशान्त स्नान की विधि से शुद्ध हो गये और कृतार्थ बने । (१७०) हाथी वाले सैनिक हाथीवालों के साथ, रथवान रथवालों के साथ तथा अश्वारोही अश्वारोहियों के साथ परस्पर बहुत काल तक युद्ध करते रहे । (१७१) तलवारों के प्रहार से छिन्न वीरयोद्धाओं की मुण्डमण्डली महाराजा प्रसेन की विजयलक्ष्मी की कमलपूजा की भाँति शोभित होती थी।
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