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अलकापुरी और कालिदासीया सङ्गीतवैदुषी
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प्राचीन काल से लेकर आज तक कामिजनों के अनेक शौकों में संगीत एक महत्त्वपूर्ण शौक रहा है । ऐसे अवसरों पर वार- स्त्रियों के सान्निध्य का उल्लेख भी प्रायः प्राप्त होता है | किन्नर तथा गन्धर्व, ये दो जातियाँ अपने संगीत- विशेषतः गायन - के लिए विशेष प्रसिद्ध रही है । वे वीणा आदि बजाकर कण्ठ संगीत प्रस्तुत करते थे । व्याख्येय श्लोक में भी उल्लेख है कि अलका के प्रासादों में किन्नर जो रक्त कण्ठ हैं, धनपति कुबेर के यश का उद्गान कर रहे हैं । गायक के लिए रक्तकण्ठ होना बहुत आवश्यक है । वैसे तो अभ्या कर कोई भी गा सकता है किन्तु यदि कहीं भगवत्कृपा से रक्त अर्थात् मधुर कण्ठध्वनि प्राप्त हो, तो गान का आनन्द द्विगुणित हो जाता है ऐसे ही हैं, अलका के किन्नर | किन्नर कुबेर के यश का उद्गान कर रहे हैं अर्थात् वे उच्च स्वर से गान्धार ग्राम में कुबेर के यश का गान कर रहे हैं । मल्लिनाथ ने उद्गान के शास्त्रीय पक्ष पर प्रकाश डाला है 'उद्गायद्भिरुच्चैर्गायनशीलैः । देवगानस्य गान्धारग्रामत्वात् तारतरं गायद्भिरित्यर्थः ।’
संगीत में तीन ग्राम माने गए हैं जिनमें षड्ज्र और मध्यम ग्राम मानवों के लिए तथा गान्धार ग्राम देवयोनि के लिए निर्णीत हैं -
'षड्जमध्यमनामानौ ग्रामौ गायन्ति मानवाः । न तु गान्धारनामानं स लभ्यो देवयोनिभिः ॥
किन्नर देवयोनि हैं, इसीलिए वे गान्धार ग्राम में गा रहे हैं ! कालिदास ने जब जब किसी देवयोनि के गायन का उल्लेख किया है, तब तब उद् उपसर्गपूर्व गै धातु का प्रयोग किया है यथा
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अक्षय्यान्तर्भवननिघयः प्रत्यहं रक्तकण्ठै -
रुद्गायद्भिर्घनपतियशः किन्नरैर्यत्र सार्द्धम् । उत्तरमेघ० १०.
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उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां
मद्गात्राकं विरचितपद ं गेयमुद्गातुकामा । उत्तरमेघ २९
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यः पूरयन् कीचकरन्ध्र भग्गान् दरीमुखोत्थेन समीरणेन । उद्गास्तामेच्छति किन्नराणां तानप्रदायित्वमिवोपगन्तुम् ॥ कुमारसंभव १८
स्वामी चरणतीर्थ महाराज ने अपनी कात्यायनी टीका में 'बद्धालापाः ' के एक बिल्कुल नवीन अर्थ की ओर संकेत किया है जो संगीत की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । वे लिखते हैं-
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