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समत्वयोग का महत्त्व
१७ साथ आत्मौपम्य भाव स्थापित करते हुए समाज में सामंजस्य पूर्ण सौहार्दपरक निर्मल दृष्टि विकसित करता है ।
जैन आगम में बताया है, कि जो लाभ और अलाभ में समभाव रखता है, वही पंडित है । संस्कृत में व्युत्पत्ति करते हुए बतलाया है कि "पापात् बिभेति इति पंडितः" जो साधना की स्थिति से आगे बढ़ रहा है, और उसकी साधना की चतुर्दिक में भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है, उस समय प्रशंसा में फूलकर ऐसा कार्य न करना, जो श्रमण संस्कृति से, निर्ग्रन्थपने की स्थिति से विरुद्ध हो तथा कोई निन्दा करे तो भी किंचित् मात्र भी निन्दा करने वालों के प्रति द्वेष भाव नहीं लाना, प्रत्युत निरन्तर राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठने की साधना में संलग्न बने रहना, वास्तविक आराधना है । साधना होती है आत्म-समाधि के लिये । उस साधना से, उस आत्म-समाधि से कई लब्धियाँ भी उपलब्ध हो सकती हैं, चूँकि साधना चमत्कार लब्धियों की प्रसव भूमि है, पर चमत्कार दिखाना साधना का आदर्श नहीं है, न उद्देश्य ही है। ज्ञानीजनों का फरमाना है कि अपना वास्तविक कल्याण चाहते हो तो चमत्कार से बचकर सदाचार का अभ्यास करो, सदाचार ही संसार का महान चमत्कार है । अपनी प्राप्त लब्धियों को गोपकर चलो । ऐसी स्थिति जिसे प्राप्त हो जाती है, वही यथार्थ में पंडित की संज्ञा को प्राप्त हो सकता है ।
___अगर समतायोग को स्वीकार किये बिना ही प्रचुर धन, साधनसामग्री, नृत्य-संगीत, राग-रंग, परिवार-जमीन-जायदाद, राज्य और पद आदि मनुष्य को सुख-शान्ति या मुक्ति दे सकते तो बड़े-बड़े राजाओं, चक्रवर्तियों और श्रेष्ठीवों आदि को इनका त्याग करके समतायोग स्वीकार करने की क्या आवश्यकता थी ? परन्तु जैसा कि आचार्यों ने कहा -
"सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नर्से विडंबियं ।
सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥ संसार के समस्त गीत(संगीत) विलाप हैं, समस्त नृत्य विडम्बना हैं, सभी आभूषण भाररूप हैं, समस्त कामभोग(के साधन) दुःखजनक हैं ।
किसीको शान्ति, आनन्द, सन्तोष, सुख एवं समाधान कामयोग के साधनों में, राजमहलों में, धन-सम्पत्ति और सत्ता में नहीं मिले । वे मिले
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