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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ डर से प्रशंसा की जाय, परन्तु अन्तर में उसके प्रति दोषदर्शी दृष्टि हो, छिद्रान्वेषिता हो, ईर्ष्या और द्वेष का विष भरा हो ।
जिन दिनों महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देश भर में स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा हुआ था. दो मुस्लिा! भाई मोहम्मद अली और शौकत अली गाँधीजी से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता संग्राम में जुड़े । गाँधीजी पर उनकी श्रद्धा थी, किन्तु उनके अन्तर्मन में साम्प्रदायिकतारूपी सर्पिणी अपना फन फैलाये बैठी थी । इसलिए एक बार बातचीत के दौरान कुछ मुसलमानों ने पूछा - "गाँधीजी आपको कैसे लगे ?" उन्होंने अपनी मनोवृत्ति के अनुसार तपाक से जवाब दिया - "गाँधीजी सज्जन हैं, निखालिस-दिल हैं, स्वतन्त्रता के लिए अहिंसक ढंग से जूझ रहे हैं, परन्तु इस्लाम की दृष्टि से तो वे खराब से खराब व्यक्ति(काफिर) हैं।"
इस संसार में गुण और अवगुण, अच्छाई और बुराई दोनों हैं । यह बात भी निश्चित है कि गुणविकास से सुख-सुविधाएँ बढ़ती हैं और अवगुण-वृद्धि से दुःख । इसलिए चतुर व्यक्ति सदैव गुणों को ही ग्रहण करते हैं, उन्हें ही देखते हैं। एक उर्दू शायर ने कहा है -
नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए।
किश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदल गए ॥
इन पंक्तियों में कवि ने एक सनातन सत्य का उद्घाटन कर दिया है । जब मनुष्य की दृष्टि बदलती है तो सारी सृष्टि . सारा दृश्य ही बदल जाता
यदि मनुष्य में गुण देखने की दृष्टि विकसित हो जाए तो वह गुणानुरागी बन जाता है और इस प्रकार सद्गुणों की ओर दृष्टि वाले व्यक्ति में एक न एक दिन वे सद्गुण अवश्य आ जाते हैं। संस्कृत भाषा में एक सुभाषित है -
'यद् ध्यायति तद् भवति' जो व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है वह वैसा ही बन जाता है। प्रमोद-भावना का साधक दूसरों के गुणों की ओर ही दृष्टि रखता है, महान आत्माओं तथा अपने से आत्मविकास में आगे बढ़े हुए सत्पुरुषों के उज्जवल और पवित्र गुणों का चिन्तन करता है तो वैसा ही बन जाए इसमें कोई सन्देह नहीं । प्रमोदभावना द्वारा जब
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