________________
समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ
१०१ सुव्यवस्था, आदि सभी प्रकार के सुख हों, ऐसा कभी सम्भव नहीं है । अनेक पीड़ाएँ, व्यथा, कष्ट और दुःख हैं। किसी को पारिवारिक सदस्यों के कारण दुःख हैं तो किसी को सामाजिक और राजनैतिक अन्याय आदि के कारण दुःख हैं । रोग, शोक, वियोग, निर्धनता, अभाव, अव्यवस्था आदि अनेक दुःख संसारी जीवों को लगे हुए हैं । समतायोगी साधक के पास हृदय है और वह समता के शिखर पर समत्वयोग के माध्यम से पहुँच जाना चाहता है, तब अपने परिपाश्विक या सम्बन्धित समाज या संसार को दुःखित, पीडित एवं व्यथित देखकर उसका हृदय सूना-सूना पड़ा रहे, निष्क्रिय और निष्पन्द होकर रहे, यह अस्वाभाविक है। वह ऐसे दुःखार्तों के स्वर और विलाप को सुनकर हृदय पाषाण-सा कठोर बनाकर पड़ा रहे, कुछ भी चिन्तन न करे यह असम्भव-सा है इसीलिए आचार्यश्री अमितगति ने समतायोगी साधक को ऐसी परिस्थिति में उन दःखित पीडितों के प्रति हमदर्द होकर सहदयतापूर्वक करुणार्द्र होना अनिवार्य कर्त्तव्य बताया है । ... जो व्यक्ति दुःखित, पीड़ित एवं आर्त को बिलखते, विलाप करते या शोक करते देखकर चुपचाप रहते हैं, जिनके हृदय में कोई संवेदना नहीं होती, अनुकम्पा भाव पैदा नहीं होता, समझना चाहिए उसकी आत्मा का विकास, आत्मौपम्य साधना का द्वार वहीं अवरुद्ध हो जाता है, हृदयहीनता उन्हें घेर लेती है । अनुकम्पा को, जो कि करुणा का ही अंग है, सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का एक चिन्ह बताया गया है। अगर किसी व्यक्ति के हृदय में दुःखित-पीड़ित को देखकर अनुकम्पा (करुणा) पैदा नहीं होती तो समझा जाता है कि उसमें अभी सम्यग्दर्शन नहीं आया है। व्यक्ति में सम्यग्दर्शन की धड़कन को जानने में अनुकम्पा भी एक निमित्त है, एक थर्मामीटर
अगर दुःखित- पीड़ित को देखकर हृदय करुणार्द्र नहीं होता तो उस साधक में करुणा ही नहीं है । करुणा का विशद अर्थ 'भगवती आराधना' में इसी का समर्थन करता है :
___ "शारीर मानसं स्वाभाविकं च दुःखमसमाप्नुवतो दृष्ट्वा-हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाऽशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्ध-तदुपोद्भवा विपदो विवशाः प्राप्नुवन्तीति करुणा, अनुकम्पा ।"
शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक ऐसे असह्य दुःख प्राणियों को पाते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org