Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 325
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... ३०३ आचार्य कमलशील ने 'तत्त्वसंग्रह - पञ्जिका' में संसार और निर्वाण के स्वरूप को प्रतिपादन करने वाला एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसका भाव यह है कि रागादि क्लेश और वासनामय चित्त को संसार कहते हैं और जब वह चित्त रागादि क्लेश और वासनाओं से मुक्त हो जाता है तब उसे भावान्त - निर्वाण कहते हैं । ' प्रस्तुत श्लोक में प्रतिपादित संसार और मोक्ष का स्वरूप युक्ति युक्त है । चित्त की रागादियुक्त अवस्था संसार है और उसकी रागादि रहित अवस्था मोक्ष है । १ → २ - संसार-बंधन का कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ( प्रवृत्ति) है और इन्हीं कारणों से जीव अपनी विवेकशक्ति को खोकर भ्रान्ति की अवस्था में संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझने लगता है, जो संसार भ्रमण का हेतु है। मोहनीय कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय से जीव को केवल - ज्ञान प्राप्त होता है । केवल- ज्ञान की यह अवस्था ही जीव की अरिहन्त अवस्था है और इस अवस्था में मन, वचन और काय के योग में से सूक्ष्मकाय योग का व्यापार चलता रहता है । अतः अरिहन्त संसारावस्था को पार करके भी संसार में रहते हैं और इसीलिए उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। इस अवस्था को पार करने के लिए चार अघातिया कर्मों का पूर्णतः क्षय करना होता है और जब आत्मा अर्थात् जीव अन्तिम शुक्ल ध्यान में सूक्ष्मकाय- योग अर्थात् अल्प शारीरिक प्रवृत्ति का भी सर्वथा त्याग कर देता है तब वह अचल, निरापद, शान्त सुख-स्थान को पा जाता है जिसे शैलेशी अवस्था कहते है । यह सुमेरू पर्वत के समान निश्चल अवस्था अथवा सर्व-संवररूप योग-निरोध अवस्था है। इस शैलेशी अवस्था में आत्मा अत्यन्त विशुद्ध रहती है और वहाँ किसी भी प्रकार की इच्छा - अनिच्छा का सम्बन्ध ही नहीं होता । इस सन्दर्भ में, यह ध्यातव्य है कि आत्मा स्वयं ही कर्ता - धर्ता, गुरु अर्थात् अपने प्रति स्वयं उत्तरदायी है । सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने पर आत्मा स्वयं ही सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। १. चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम्। तदेव तैर्विनिर्मुक्तम् भवान्त इति कथ्यते । २. मुक्ति: निर्मलता धियः Jain Education International For Private & Personal Use Only - तत्वसंग्रहप्रज्ञ्जिका पृ० १०४ तत्त्वसंग्रह पृ० १८४ www.jainelibrary.org

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