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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
इसी सिलसिले में यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि आत्मा जब तक संसार बन्धन में रहती है तब तक वह नामकर्म के उदय के कारण संकोच - विस्तार शरीर धारण करती है और मुक्त होने पर, अशरीरी बन जाती है ।
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इस प्रकार सिद्धात्मा शरीर, इन्द्रिय, मन विकल्प एवं कर्म रहित होकर अनन्त वीर्य को प्राप्त होता है और नित्य आनन्द स्वरूप में लीन हो जाता है। आत्मा की यह सिद्धावस्था कर्ममुक्त, निराबाध संक्लेश रहित एवं सर्वशुद्ध होती है । जहाँ निद्रा तन्द्रा-भय-भ्रान्तिराग-द्वेष- पीड़ा - संशय-शोक-मोह - जरा - जन्म-मरण-क्षुधा तृष्णा-खेद-मद- उन्माद - मूर्च्छा, मत्सर आदि दोष नहीं रहते हैं । इस अवस्था में आत्मा में न संकोच का भाव होता है न विस्तार का । आत्मा सदा एक अवस्था में रहती है। वह अनन्त वीर्य एवं लब्धियों की प्राप्ति करके एक अनिर्वचनीय सुखानुभूति का अनुभव करती है । यह सुखानुभूति पार्थिव सुखानुभूति से सर्वथा भिन्न है, जो मुक्त आत्मा को ही प्राप्त होती है। (It is state of complete tranquility)
सभी प्रकार के संसार - बन्धनों से मुक्त सिद्ध आत्मा के विभिन्न योग परम्पराओं में अनेक नाम हैं । ब्राह्मणों ने जहाँ उस सिद्धात्मा को ब्रह्म कहा है, वहाँ वैष्णव, तापस, जैन, बौद्ध, कौलिक आदि ने क्रमशः उसे विष्णु, रौद्र, जिनेन्द्र, बुद्ध, कौल कहा है । वस्तुतः सिद्धावस्था अथवा निर्वाण अनेक नामों से अभिहित होकर भी एक ही तत्त्व का बोधक है।
जैन दर्शनानुसार ईश्वर वह है, जो न इस सृष्टि की रचना करता है और न कृपालु ही है, बल्कि वह अपने ही आत्मस्वरूप में लीन रहनेवाली एक स्वतन्त्र सत्ता है, जो सर्वथा मुक्त होती है । अतः जितने भी जीव मुक्त हो जाते हैं वे सभी ईश्वर अथवा परम हैं। ये संख्या में अनन्त हैं ।
आत्मा
इस प्रकार निर्वाण प्राप्त अथवा सिद्धावस्था प्राप्त आत्मा अपने आप में लीन रहनेवाली चिदात्मा है, जो न सृष्टिकर्ता है न विनाशकर्ता है और न संसार की रक्षक ही है । मोक्ष के सुख का वर्णन करते हुए उमास्वाति ने लिखा है मुक्तात्माओं का सुख विषयों से अतीत, अव्यय और अव्याबाध है। संसार के सुख विषयों की पूर्ति, वेदना के अभाव, पुण्य कर्मों के इष्ट फलरूप हैं, जबकि मोक्ष का सुख कर्मक्लेश के क्षय से उत्पन्न परमसुख 'है। सारे लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उपमा सिद्धों के सुख के साथ दी जा
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