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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि पुद्गलों का संयोग सतत होता रहता है, और अतएव कर्मबन्ध का प्रवाह अनादि है, फिर भी प्रत्येक, कर्म-पुद्गल-व्यक्ति का संयोग आदिमान् है । कर्मबँधा, अत: वह कर्मबन्ध सादि हुआ और सादि हुआ इसलिए वह कर्म कभी न-कभी जीव पर से दूर तो होने का ही। अतएव व्यक्ति-रूप से कोई भी कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ शाश्वत रूप से संयुक्त नहीं रहता । तो फिर शुक्ल ध्यान के पूर्ण बल से नए कर्मों का बन्ध रुक जाने के साथ ही पुराने कर्म यदि झड़ जायँ तो क्या यह शक्य नहीं है ? इस प्रकार सब कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो सकता है आत्मा कर्म रहित हो सकती है। ___इसके अतिरिक्त संसार के मनुष्यों की ओर दृष्टिक्षेप करने पर ज्ञात होता है कि किसी मनुष्य में राग-द्वेष की मात्रा अधिक होती है तो किसी में कम । इतना ही नहीं, एक ही मनुष्य में भी राग-द्वेष का उपचय-अपचय होता है। तब, यह तो सहज रूप से समझा जा सकता है कि राग-द्वेष की इस प्रकार की कमी-बेशी बिना कारण सम्भव नहीं । इस पर से ऐसा माना जा सकता है कि कमी-बेशी वाली वस्तु जिस हेतु से घटती है उस हेतु को यदि पूर्ण बल मिले तो उसका सर्वथा नाश ही हो। जिस प्रकार पूष महीने की प्रबल ठंडी बालसूर्य के मन्द मन्द ताप से घटती - घटती अधिक ताप पड़ने पर बिलकुल उड़ जाती है उसी प्रकार कमी-बेशी वाले राग-द्वेष दोष जिस कारण से कम हाते हैं वह कारण यदि पूर्ण रूप से सिद्ध हो तो वे दोष समूल नष्ट हों इसमें क्या अयुक्त है ? राग-द्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं और ये शुभ भावनाएँ जब अधिक प्रबल बनती हैं और आगे बढ़कर आत्मा जब श्रेष्ठ समाधियोग पर पहुँचती है तब राग-द्वेष का पूर्ण क्षय होता है। इस प्रकार रागद्वेष का क्षय होने पर निरावरणदशा आत्मा को प्राप्त होती है। इस दशा की प्राप्ति होते ही केवलज्ञान का प्रादर्भाव होता है; क्योंकि राग-द्वेष का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों कर्मों का क्षय हो जाता है । सम्पूर्ण संसार रूपी महल केवल दो ही स्तम्भों पर टिका हुआ है और वे हैं राग और द्वेष । मोहनीय कर्म का (मोह का) सर्वस्व राग-द्वेष है। ताड़ वृक्ष के सिर पर सूई भोंक देने से जिस प्रकार सारा ताड़ वृक्ष सूख जाता है उसी प्रकार सब कर्मों के मूलरूप राग-द्वेष पर प्रहार करने से, उनका उच्छेद करने से सारा कर्म वृक्ष सूख जाता है - नष्ट हो जाता है। केवल ज्ञान की सिद्धि :
राग-द्वेष के क्षय से (मोहनीय कर्म के क्षय के बाद तत्क्षण ही शेष तीन ‘घाती' कर्मों का क्षय हो जाने से) प्रादुर्भूत केवलज्ञान के सम्बन्ध में जो स्पष्टीकरण किया जाता है वह
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