Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 332
________________ ३१० समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि कर्म सम्भव है तथा कर्म से ही पुनर्जन्म अथवा संसार-चक्र प्रारम्भं होता है। इसलिए कर्म अथवा संसार से विमुक्त होने के लिए बौद्धयोग में आचारतत्त्व, अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत शील एवं समाधि का सतत अभ्यास करने का निर्देश है, जिनके द्वारा निर्वाण की प्राप्ति होती बौद्ध योग के अनुसार निर्वाण एक आध्यात्मिक अनुभव है, जिसकी प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक विकास अर्थात् चित्तशुद्धि अपेक्षित है, क्योंकि चित्तशुद्धि अथवा जीवन की विशुद्धि ही निर्वाण है । निर्वाण की अवस्था में, कोई चित्त-मल नहीं रहता अर्थात् यह सम्पूर्ण कर्मक्षयों के कारण होने वाली अन्तिम भूमिका है। यही कारण है कि जो साधक अथवा योगी इस अवस्था में, पहुँचता है, उसे किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रहती, संसार में पुन: लौटने का भय नहीं होता तथा वह परमसुख या आनन्द प्राप्त करता है। निर्वाण की स्थिति और स्वरूप के सम्बन्ध में स्वयं बुद्ध ने कोई निर्णायक उत्तर न देकर उसे अव्याकृत कहा है। लेकिन उनके बाद के आचार्यों ने दीप-निर्वाण का आधार लेकर निर्वाण विषयक अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। मिलिन्द-प्रश्न के अनुसार निर्वाण का स्वरूप इस प्रकार है - तृष्णा के निरोध से उपादान का, उपादान के निरोध से भव का, भव के निरोध से, जन्म का रुक जाना और पुनर्जन्म रुक जाने से बूढ़ा होना, मरना, शोक, दु:ख, बेचैनी, परेशानी आदि सभी प्रकार के दु:ख समाप्त हो जाते हैं। तृष्णा, राग, द्वेष, मोह आदि संसार की जड़ तथा साधक (योगी) के मन को चंचल बनाने के कारण हैं, जिनसे विविध प्रकार के कर्मों का आश्रव होता है। अत: राग, द्वेष, मोह आदि का क्षय कर देना ही निर्वाण है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार तेल और बत्ती के रहने पर दीपक जलता है और उनके अभाव में वह बूझ जाता है, उसी प्रकार शरीर छूटने पर अर्थात् मरने के बाद अनासक्ति के कारण अनुभव की गई ये वेदनाएँ शान्त पड़ जाती हैं। निर्वाण की स्थिति में दुःख का लेश भी नहीं रहता, बल्कि वह स्थिति आनन्द की अत्यधिक पराकाष्ठा है। वह स्थिति इन्द्रियों, काल आदि से परे है और केवल मन द्वारा जानी जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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