Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 331
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... ३०९ इस प्रकार है ज्ञान की मात्रा मनुष्यों में न्यूनाधिक देखी जाती है। यह क्या सूचित करती है ? यही कि आवरण जितनी मात्रा में हटता जाता है उतनी मात्रा में ज्ञान प्रकट होता है। आवरण जैसे जैसे अधिक हटता है, ज्ञान भी वैसे वैसे अधिकाधिक प्रकाशित होता है। और वह आवरण यदि सर्वथा हट जाय तो पूर्ण ज्ञान प्रकट हो सकता है। यह बात एक दृष्टान्त से समझाई जाती है। वह दृष्टान्त इस प्रकार है। छोटी-बड़ी वस्तुओं में जो लम्बाईचौड़ाई एक की अपेक्षा दूसरी में अधिक-अधिक दीख पडती है, उस बढ़ती हुई लम्बाईचौड़ाई का पूर्ण प्रकर्ष जिस प्रकार आकाश में होता है उसी प्रकार ज्ञान की मात्रा भी बढ़ती बढ़ती किसी पुरुष विशेष में पूर्ण कला पर पहुँच सकती है। ज्ञान के वर्धमान प्रकर्ष की पूर्णता जिसमें प्रकट होती है वह पूर्ण ज्ञानप्रकाश प्राप्त करने वाला सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहलाता है और उसका जो ज्ञान है वह केवलज्ञान । जब आत्मा का राग-द्वेषरूपी मालिन्य पूर्णतया दूर हो सकता है और जब वह पूर्ण शुद्धि प्राप्त कर सकती है तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञान-प्रकाश भी, जिसे केवलज्ञान कहते है; उसे प्राप्त हो सकती है। . वैदिक योग से कैवल्य अथवा मोक्ष उपनिषद, गीता, पुराण, योगदर्शन, योगवासिष्ठ आदि वैदिक ग्रन्थों में बताया गया है कि जब योगी चित्त को पूर्णत: विशुद्ध बना लेता है, तब कैवल्य अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है। अमृतबिन्दूपनिषद में मनावरोध को मोक्ष का उपाय बतलाते हुए योग के अभ्यास से ज्ञान प्राप्त करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का उल्लेख है। ध्यानबिन्दूपनिषद एवं योगचूडामण्युपनिषद के अनुसार कुण्डलिनी-शक्ति के जाग्रत होने पर मोक्ष द्वार का भेदन होता है। योगदर्शनानुसार जीवात्मा का सृष्टि के साथ कर्ता व भोक्तापन का सम्बन्ध अथवा पुरुष व प्रकृति और मन के संयोग के कारण अविद्या है, और उस अविद्या के बन्धन को तोड़ने के लिए योग के अनेक उपाय हैं। वासना, क्लेश और कर्म ही संसार है अथवा संसार के कारण हैं। अत: इन वासनाओं को पूर्णत: नष्ट करके स्वस्वरूप में अवस्थित हो जाना ही मोक्ष अथवा कैवल्य है। दूसरे शब्दों में वासना का क्षय ही मोक्ष अथवा जीवनमुक्ति है, अथवा मन और पुरुष की समान शुद्धि ही कैवल्य है । मोक्ष, वाणी तथा मन से अर्थात् तर्क-वितर्क से परे अथवा अगोचर है। बौद्ध योग से निर्वाण : बौद्ध योग में कर्म को संसार की जड़ बताते हुए कहा है कि वह कभी पीछा न छोड़ने वाली मनुष्य की छाया के समान है अर्थात् कर्मों से विपाक प्रवर्तित होता है और स्वयंविपाक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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