Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 329
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... ३०७ यहाँ एक आशंका हो सकती है और वह यह कि जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है उस वस्तु का विनाश भी होता है - इस नियम के अनुसार मोक्ष की भी उत्पत्ति होने से उसका भी अन्त होना चाहिए । इस प्रकार मोक्ष शाश्वत सिद्ध नहीं हो सकता । इसके समाधान में यह जानना चाहिए कि मोक्ष कोई उत्पन्न होने वाली वस्तु नहीं है। केवल कर्म-बन्ध से छूट जाना अथवा आत्मा पर से कर्मों का हट जाना ही आत्मा का मोक्ष है। इससे आत्मा में कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती जिससे उसके अंत की कल्पना करनी पड़े। जिस प्रकार बादल हट जाने से जाज्वल्यमान सूर्य प्रकाशित होता है उसी प्रकार कर्म के आवरण हट जाने से आत्मा के सब गुण प्रकाशित होते हैं, अथवा ऐसा कहें कि आत्मा अपने मूल ज्योतिर्मय चित्स्वरूप में पूर्ण प्रकाशित होती है। इसी का नाम है मोक्ष । सर्वथा निर्मल मुक्त आत्मा पुन: कर्म से बद्ध नहीं होती और इस कारण उसका संसार में पुनरावर्तन ' भी नहीं होता । महर्षि उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥ अर्थात् जिस प्रकार बीज सर्वथा जल जाने पर उसमें से अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूपी बीज सर्वथा जल जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता । संसार का सम्बन्ध कर्म-सम्बन्ध के अधीन है और कर्म का सम्बन्ध राग-द्वेष-मोह की चिकनाहट के अधीन है। जो पूर्ण निर्मल हुए हैं, जो कर्म के लेप से सर्वथा रहित हो गए हैं उनमें राग-द्वेष की चिकनाहट हो ही कैसे ? और इसीलिये उनके साथ कर्म के पुनः सम्बन्ध की कल्पना भी कैसी ? अतएव संसारचक्र में उनका पुनरवतरण असम्भव है। सब कर्मों का क्षय हो सकता है। यहाँ पर एक ऐसा प्रश्न होता है कि ‘आत्मा के साथ कर्म का संयोग जब अनादि है तब अनादि कर्म का नाश कैसे हो सकता है ? क्योंकि ऐसा नियम है कि अनादि वस्तु का नाश नहीं होता। इस प्रश्न के समाधान में यह समझने का है कि आत्मा के साथ नएनए कर्म बंधते जाते हैं और पुराने झड़ते जाते हैं, इस स्थिति में कोई भी कर्मपुद्गल व्यक्ति आत्मा के साथ अनादिकाल से संयुक्त नहीं है, किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के संयोग का प्रवाह अनादिकाल से बहता आता है। यद्यपि संसारी आत्मा के साथ सदा से भिन्न-भिन्न कर्म१. “न स पुनरावर्तते, न पुनरावर्तते।" - छान्दोग्योपनिषद् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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