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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि __मनुष्य में झुकाव की मनोवृत्ति होती है। वह अपने अनुकूल चिन्तन और तर्क के प्रति झुक जाता है। झुकाव का कारण राग और द्वेष है। जिसमें राग-द्वेष के उपशमन की साधना नहीं होती, वह मध्यस्थ या तटस्थ नहीं हो सकता। मध्यस्थ भाव को प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता । उपाध्यायजी ने बताया - “माध्यस्थ्य भाव से युक्त एक पद का ज्ञान भी प्रमाण है। माध्यस्थ्य शून्य शास्त्र
कोटि भी व्यर्थ हैं। भाषा में माध्यस्थ्य भाव ही शास्त्र का अर्थ है। वह
माध्यस्थ्य भाव से ही सही रूप में जाना जाता है"२ शास्त्रज्ञ लोग धर्मवाद के स्थान पर विवाद को महत्त्व दे रहे थे। उनको लक्ष्य कर कहा गया -
“शमार्थ' सर्वशास्त्राणि, विहितानि मनीषिभिः ।
स एव सर्वशास्त्रज्ञः यस्य शान्तं सदा मनः ॥" "मनीषियों ने शास्त्रों का निर्माण शान्ति के लिए किया । सब शास्त्रों को जाननेवाला वही है जिसका मन शान्त है।" ... धर्म के नाम पर अशान्ति को उभारने वाला शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता । जो स्वयं अशान्त है, वह भी शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता।
पूर्व और पाश्चात्य दर्शनों में स्याद्वाद का मूल्य अपूर्व है। स्याद्वाद सुख, शान्ति और सामंजस्य का प्रतीक है। विचार के क्षेत्र में अनेकान्त, वाणी के क्षेत्र में स्यादवाद और आचरण के क्षेत्र में अहिंसा ये सब भिन्न-भिन्न दृष्टियों से एकरूप ही हैं। जो दोष नित्यवाद में हैं, वे समस्त दोष अनित्यवाद में उसी प्रकार से हैं। अर्थ-क्रिया न नित्यवाद में बनती है, न अनित्यवाद में । अत: दोनों वाद परस्पर विध्वंसक हैं। इसी कारण स्यादवाद का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। हिंसा, अहिंसा, सत्य, असत्य आदि का निर्णय इसके द्वारा सरलता से किया जा सकता है। मानव, आचरण को शुद्ध कर, स्याद्वाद रूप वाणी द्वारा सत्य की स्थापना
१. अध्यात्मोपनिषद, १/७३; “माध्यस्थ्यसहितं यैकपदज्ञानमपि प्रमा।
__ शास्त्रकोटितथेवान्या, तथा चोक्तं महात्मना ।।" २. अध्यात्मोपनिषद, १/७१ मध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो, येन तत्त्चारु सिध्यति ।
स एव धर्मवादः स्यादन्यद् बालिशवल्गनम् ।।"
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