Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 321
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... - २९९ विकास की स्थितियाँ हैं - (१) अन्धपुडुंजन, (२) कल्याण-पुथुजन, (३) सोतापन्न, (४) सकदागामी, (५) औपपातिक तथा (६) अरहा । इनको पार करता हुआ साधक अपने चारित्रबल से संयम, करुणा एवं वैराग्य प्राप्त करता है। इन स्थितियों अथवा अवस्थाओं को और अधिक स्पष्ट करते हुए ‘मिलिन्दप्रश्न' में चित्त की सात अवस्थाओं का वर्णन है जो इस प्रकार है - (१) संक्लेश चित्त - यह स्थिति अज्ञान अथवा मूढ़ता की है, क्योंकि इस अवस्था में योगी का चित्त राग, द्वेष, मोह एवं क्लेश से युक्त होता है तथा वह शरीर, शील एवं प्रज्ञा की भावना अर्थात् चिन्तन भी नहीं करता। (२) संभ्रम आपन्न चित्त - यह भी अविकास की ही अवस्था है। इस स्थिति में साधक बुद्धकथित मार्ग को भलीभाँति जानकर, शास्त्र का अच्छी तरह मनन और चिन्तन करके भी चित्त के तीन भ्रममूलक विषयों अर्थात् संयोजनाओं को ही नष्ट कर पाता है, सम्पूर्ण संयोजनाओं को नहीं । (३) सकदागामी चित्त - इस अवस्था में साधक पाँच संयोजनाओं से मुक्त होता है और उसमें रागद्वेष नाममात्र का रह जाता है। (४) अनागामी चित्त - इस अवस्था में शेष पाँच संयोजनाओं को साधक काटता है और चित दस स्थानों में हलका और तेज हो जाता है। फिर भी ऊपर की पाँचसंयोजनाओं में उसका चित्त भारी और मन्द बना ही रहता है। (५) अर्हत् चित्त - इस अवस्था में योगी के सभी आम्रव, क्लेश सर्वथा क्षीण हो जाते हैं और वह ब्रह्मचर्यवास को पूरा करके सभी प्रकार के भावपाशों का व्युच्छेद कर डालता है । फलस्वरूप उसका चित्त अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल बन जाता है । ध्यातव्य है कि इस अवस्था में चित्त की शुद्धि हो जाती है, लेकिन प्रत्यक् बुद्ध की भूमियों में भारी एवं मन्द होता है । अर्थात् सम्पूर्ण चित्तशुद्धि नहीं होती। (६) प्रत्यक बुद्ध का चित्त - इस अवस्था में साधक स्वयं अपना स्वामी होता है और उसे किसी भी आचार्य अथवा गुरु की अपेक्षा नहीं रहती है तथा उसका चित्त अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध होता है। (७) सम्यक् सम्बुद्ध का चित्त - यह अवस्था सर्वज्ञ की है, जो दस व्रतों की धारणा करनेवाले, चार प्रकार के वैशारद्यों से युक्त तथा अठारह बुद्ध धर्मों से युक्त होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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