Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 320
________________ २९८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि स्थान में चौदह भूमिकाओं का वर्णन योगवासिष्ठ में ' बहुत रुचिकर व विस्तृत है । सात भूमिकाएँ ज्ञान की और सात अज्ञान की बतलाई हुई हैं, जो जैन परिभाषा के अनुसार क्रमश: मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की समस्या की सूचक हैं । (११) योगवासिष्ठ में तत्त्वज्ञ, समदृष्टि, पूर्णाशय और मुक्त पुरुष का जो वर्णन ' है, वह जैन संकेतानुसार चतुर्थ आदि गुणस्थानों में स्थित आत्मा को लागू पड़ता है । जैनशास्त्र में जो ज्ञान का महत्त्व वर्णित २ है, वही योगवासिष्ठ में प्रज्ञामाहात्म्य के नाम से उल्लिखित है ।' (iii) बौद्ध परम्परा में बौद्ध परम्परा में आध्यात्मिक विकास की भूमिका को चित्त-शुद्धि की साधना के लिए अनिवार्य माना गया है, क्योंकि इस विकास की भूमिका नैतिक आचार-विचार के द्वारा चारित्र को विकसित और सशक्त बनाती है और चारित्र ही आध्यात्मिक विकास की रीढ़ है। बताया गया है कि साधक श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञा इन पाँच साधनों के सम्यक्-परिपालन द्वारा अपने चारित्रिक गठन और विकास के माध्यम से विशुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है, जो निर्वाण की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। दूसरे शब्दो में निर्वाण अथवा विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति की क्रमश: छह अथवा सात स्थितियों का विधान किया गया है, उनसे आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। ये आध्यात्मिक १. (१) उत्पत्ति - प्रकरण, सर्ग ११७ (२) उत्पत्ति - प्रकरण, सर्ग ११८ २. योग० निर्वाण प्र०, सर्ग १७०; निर्वाण प्र० ३, सर्ग ११ योग० स्थिति - प्रकरण, सर्ग ७५; निर्वाण - प्र० स० १९ ३. ज्ञानसार, पूर्णताष्टक। ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक ज्ञानसार, निर्लेपाष्टक ज्ञानसार, नि:स्पृहाष्टक ज्ञान सार, विद्याष्टक ज्ञानसार, निर्भयाष्टक ज्ञानसार, शास्त्राष्टक ज्ञानसार, तपोष्टक ४. उपशम - प्र०. प्रज्ञामाहात्म्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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