Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 318
________________ २९६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि का विचार पाया जाना स्वाभाविक है । अतएव आर्यावर्त के जैन, वैदिक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार जैन दर्शन में गुणस्थान के नाम से, वैदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और बौद्धदर्शन में अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है। गुणस्थान का विचार जैसा जैन दर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के सम्बन्ध में बहुत - कुछ समता है। अर्थात् संकेत, वर्णनशैली आदि की भिन्नता होने पर भी वस्तु-तत्त्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के बराबर ही है। वैदिक दर्शन के योगवासिष्ठ, पातंजल योग आदि ग्रन्थों में आत्मा की भूमिकाओं का अच्छा विचार है। जैनशास्त्र में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण बतलाया है कि जो अनात्मा में अर्थात् आत्म-भिन्न जड़ तत्त्व में आत्म-बुद्धि करता है, वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा' है। योगवासिष्ठ में ' तथा पातञ्जल योगसूत्र में अज्ञानी जीव का वही लक्षण है। जैन शास्त्र में मिथ्यात्वमोह का संसार-बुद्धि और दु:खरूप फल वर्णित है। वही बात योगवासिष्ठ के निवार्ण ५ प्रकरण में अज्ञान के फलस्वरूप से कही गई है। (२) योगवासिष्ठ निर्वाण प्रकरण पूर्वार्ध में अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दु:ख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का ६ नाश, यह क्रम जैसा वर्णित है, वही क्रम जैनशास्त्र में मिथ्याज्ञान और सम्यक्ज्ञान के निरूपण द्वारा जगह-जगह वर्णित है। (३) योगवासिष्ठ के उक्त प्रकरण में ही जो अविद्या का विद्या से और विद्या का विचार से नाश बतलाया है, वह जैनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिक ज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। (४) जैनशास्त्र में मुख्यतया मोह को ही बन्ध का याने संसार का हेतु माना है। योगवासिष्ठ 4 में वही बात रूपान्तर से कही १. (१) तत्त्वार्थ राजवार्तिक ८, १, १२ (२) योगशास्त्र, प्रकाश १२ (३) ज्ञानसार, मोहाष्टक (४) ज्ञानसार, विद्याष्टक । (५) ज्ञानसार, तत्त्वदृष्टि-अष्टक २. निर्वाण - प्रकरण; पूर्वार्ध, सर्ग ६ ३. पातञ्जलयोगसूत्र, साधन पाद, सूत्र ५ ४. (१) तत्त्वार्थ - राजवार्तिक ९, १, ३१ (२) ज्ञानसार, मोहाष्टक ५. पूर्वार्द्ध, सर्ग ६. ६. सर्ग ८ ७. सर्ग९ ८. उत्पत्ति - प्रकरण, सर्ग१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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