Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 316
________________ २९४ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि । (१४) अयोगी केवली तेरहवें गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद आत्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणों को अर्थात् अप्रधानभूत अघाती कर्मों को उड़ाकर फेंक देने के लिए सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान रूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देती है। यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किंवा चौहवाँ गुणस्थान है। इसमें आत्मा समुच्छिन्नक्रिया-प्रतिपाति शुक्ल ध्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शरीर त्याग-पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करती है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति ' है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है और यही अपुनरावृत्ति-स्थान है। क्योंकि संसार का एकमात्र कारण मोह है, जिसके सब संस्कारों का निःशेष नाश हो जाने के कारण अब उपाधि का संभव नहीं है। . ऊपर आत्मा की जिन चौदह अवस्थाओं का विचार किया है, उनका तथा उनके अन्तर्गत अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओं का बहुत संक्षेप में वर्गीकरण करके शास्त्र में शरीरधारी आत्मा की सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं-बहिरात्म-अवस्था, (२) अन्तरात्मअवस्था और (३) परमात्म -अवस्था । पहली अवस्था में आत्मा का वास्तविक विशुद्ध रूप अत्यन्त आच्छन्न रहता है, जिसके कारण आत्मा मिथ्याध्यासवाली होकर पौद्गलिक विलासों को ही सर्वस्व मान लेती है और उन्हीं की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण शक्ति का व्यय करती है। दूसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट नहीं होता पर उसके ऊपर का आवरण गाढ न होकर शिथिल, शिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासों की ओर से हटकार शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसी से उसकी दृष्टि में शरीर आदि की जीर्णता व नवीनता अपनी जीर्णता व नवीनता नहीं है। यह दूसरी अवस्था ही तीसरी अवस्था का दृढ़ सोपान है । तीसरी अवस्था में आत्मा का वास्तवकि स्वरूप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके १. योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलाँस्त्यजेत् । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥७॥ वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमन्तैर्भासते स्वतः । रूपं व्यक्तात्मन: साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव ।।८।। - ज्ञानसार, त्यागाष्टक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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