Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 315
________________ २९३ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... (१२) क्षीण मोह जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्ति का है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाली आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरती है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाली उससे कदापि नहीं गिरती, बल्कि ऊपर को ही चढ़ती है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होने वाले विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षा को पास कर लेते हैं; उसी प्रकार एक बार मोह से हार खाने वाली आत्मा भी अप्रमत्त भाव व आत्म-बल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देती है। उक्त दोनों श्रेणीवाली आत्माओं की तर-तमभावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-भाव-रूप सर्वोच्च भूमिका पर चढ़ने की दो सीढियाँ हैं, जिनमें से एक को जैनशास्त्र में उपशम श्रेणी' और दूसरी को 'क्षपकश्रेणि' कहा है। पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ाने - वाली ही है। पहली श्रेणी से गिरने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक अध:पतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाए, पर उसकी वह अध:पतित स्थिति कायम नहीं रहती । कभी-न-कभी फिर वह दूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोह शत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणी की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वथा क्षय कर डालता है । व्यवहार में अर्थात् अधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रु को फिर से हरा सकता है। (१३) सयोगी केवली परमात्म-भाव का स्वराज्य प्राप्त करने में मुख्य बाधक मोह ही है, जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैन-शास्त्र में ‘घाती कर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकों की तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर क्या देरी ! विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्म भाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय ज्ञान, चारित्र आदि का लाभ करती है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुख का अनुभव करती है। जैसे, पूर्णिमा की रात में निरभ्र चन्द्र की सम्पूर्ण कलाएँ प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्मा की चेतना आदि से भी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो . जाती हैं। इस भूमिका को जैन शास्त्र में तेरहवाँ गुणस्थान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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