Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 295
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... २७३ की गई है। इन तीन साधनों से प्रज्ञा या बुद्धि उत्तरोत्तर संस्कारित व परिष्कृत होती जाती है, और फलस्वरूप उत्तम योग की प्राप्ति का फल निकट होता जाता है। ' योग साधना में पुरुषार्थ की सफलता तभी संभव होती है जब वह आत्मा और कर्म के स्वभाव के प्रतिकूल न हो । वस्तु-स्वभाव का उल्लंघन किसी भी तरह संभव नहीं है। इसीलिए आत्मा व कर्मों के स्वरूप आदि का ज्ञान कर, उनके स्वभाव के अनुकूल प्रयत्न किया जाना लाभप्रद होता है । मात्र पुरुषार्थ से कार्य-सिद्धि संभव नहीं है । २ ___ जैन परम्परा में समस्त क्रियाओं में भावों की प्रधानता मानी गई है । भावों की प्रशस्तता - अप्रशस्तता के आधार पर ही किसी कार्य की प्रशस्तता - अप्रशस्तता निर्भर होती है । उक्त मनोवैज्ञानिक तथ्य को आ. हरिभद्रसूरि ने योग साधना के क्रम में भी विशेष महत्त्व दिया है। जिस प्रकार भोज्य पदार्थ एक ही हो, किन्तु अगर रोगी व्यक्ति उसे खाए तो वह पदार्थ अहितकारी होता है, उसी भोज्य पदार्थ को स्वस्थ व्यक्ति खाता है तो वह उसके लिए कल्याणकारी होता है । इस प्रकार, एक ही भोज्य पदार्थ की - उसके सेवन करने वाले व्यक्तियों की स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न परिणति होती देखी जाती है, उसी प्रकार, योग-साधक की आन्तरिक स्थितियों के आधार पर अनुष्ठानों की प्रशस्तता में तारतम्य संभव होता है। ३. अनुष्ठान - कर्ता की भूमिकाओं के भेद से अनुष्ठानों के पाँच प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं : (१) विष अनुष्ठान, (२) गर अनुष्ठान, (३) अननुष्ठान, (४) तद्हेतुअनुष्ठान (५) अमृतानुष्ठान । इन पाँचों में पहले तीन अनुष्ठान असत् माने गए हैं, और अन्तिम दो को सदनुष्ठान के रूप में स्वीकारा गया है। इनमें पाँचवाँ अमृतानुष्ठान ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसका सम्बन्ध अज्ञान के उग्र विष के अभाव से है। अपुनर्बन्धक आदि योगाधिकारियों के अनुष्ठान प्रशस्त ही होते हैं । . योग के भेद और उनका आधार जैन शास्त्र में (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद योग के किये हैं। पातंजल दर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात १. योगबिन्दु - ४११ २. योगबिन्दु - ४१३ - ४१५ ३. योगबिन्दु - १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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