Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 297
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... २७५ जो संयमी होता है, वह तपस्वी भी होता है। तप अर्थात् पुरुषार्थ । जीवन को ऊँचा उठाने के लिए, शुद्ध बनाने के लिए, सात्त्विक बनाने के लिए पुरुषार्थ अत्यन्त आवश्यक है। शरीर विकारग्रस्त, प्रमादबहुल और कषायसंकुल न बने, इसके लिए प्रतिपल सजग, सक्रिय और अप्रमादी रहना पड़ता है। यही तपस्या है। श्रमण - संस्कृति में निहित श्रम शब्द आत्मशुद्धि के लिए किए जाने वाले पुरुषार्थ का प्रतीक है। भगवान् महावीर कहते हैं - "सुवण्णरूपस्स हु पन्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । एअस्स खुदस्स ण तेहिं किंचि, इच्छा हु आयाससमा अणंतिया।" - उत्तराध्ययन अ०९ यदि कैलास पर्वत के समान भी सौने-चाँदी के असंख्य पर्वत हो जायें तो भी मनुष्य को सन्तोष नहीं होता क्योंकि इच्छा तो आकाश की तरह अनंत है। अत: जीवन में शान्तिपूर्ण प्रगति के लिए इन्द्रियों पर निग्रह और इच्छाओं पर नियंत्रण आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है और यह इन्द्रिय-निग्रह तप द्वारा ही सुसाध्य है। एक-एक इन्द्रिय, के वशीभूत होने पर भी प्राणियों की कैसी दयनीय स्थिति बनती है ! कर्णेन्द्रिय या श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत बनकर हरिण वीणा की मधुर ध्वनि में आसक्त बन जाता है और शिकारी के हाथों प्राणों से हाथ धो बैठता है। दीपक के प्रकाश में मतवाला बना पतंगा केवल एक आँख के विषय में लुब्ध बनकर जीवन की आहुति दे देता है। इसी प्रकार पुष्प - पराग में पागल बनकर भौंरा एक घ्राणेन्द्रिय (नासिका) को तृप्त करने के लिए सूर्यास्त होने पर फूल में बन्द हो जाता है और जीवनलीला समाप्त कर देता है। रसनेन्द्रिय (जिह्वा) में लुब्ध बनी हुई मछली मछुए के द्वारा जाल में फंसा ली जाती है और केवल स्पर्शेन्द्रिय में वशीभूत हाथी खड्डे में डाला जाकर बन्धनों में जकड़ लिया जाता है। ___जहाँ एक इन्द्रिय में भी आसक्त बनने पर प्राणियों की ऐसी दुर्दशा बन जाती है वहाँ पूरी इन्द्रियों के वशवर्ती होने पर जीवन की क्या दशा बन सकती है यह स्वतः स्पष्ट है। अत: जीवन में आनन्द और शक्ति तथा जीवन-विकास के लिए इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक है और इन्द्रिय निग्रह के लिए तप । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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