Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 305
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... २८३ ध्यान की सिद्धि के लिए चार बातें जैन साधना में अपेक्षित मानी गई हैं। गुरु का मार्गदर्शन, श्रद्धा, सतत अभ्यास और स्थिर मन । जबकि पतंजलि ने अभ्यास की दृढ़ता के तीन हेतु बताये हैं - १. दीर्घकाल, २. निरन्तरता और ३. सत्कार । (४) आध्यात्मिक विकासक्रम योग सिद्धि के लिए आध्यात्मिक विकास अतीव आवश्यक है। व्यावहारिक परिभाषा में आध्यात्मिक विकास ही चारित्र-विकास है और इस आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास - क्रम में ही वैराग्य तथा समताभाव का उदय होता है, जो योग का प्रमुख अंग है। यद्यपि आत्मा स्वभावत: शुद्ध है, परन्तु जब वह अविद्या, कर्म अथवा माया के बन्धन में होती है तब विकृत होकर नाना प्रपंचों अथवा विभिन्न अच्छे-बुरे कर्मों का कारण बन जाती है। अत: आत्मा की परिशुद्धि के लिए आचार सम्बन्धी व्रत-नियमों का पालन आवश्यक होता है, ताकि समस्त कर्ममल का नाश हो सके और नये कर्मों का बंधन भी रुक सके । इन्हीं अविद्याओं, कर्मों अथवा माया - प्रपंचों को दूर करने और आत्मा को विशुद्ध अवस्था में लाने का प्रयत्न विभिन्न योग - परम्पराओं का अभीष्ट है; क्योंकि विशुद्ध आत्मा ही मोक्ष की अधिकारी है । इस दृष्टि से योग के सन्दर्भ में आध्यात्मिक अथवा आत्मिक विकास का वर्णन वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों परम्पराओं में हुआ है। . (१) जैन परम्परा में : आगम साहित्य में कहीं पर भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। समवायांग में गुणस्थान के स्थान पर जीवस्थान शब्द आया है। गुणस्थान शब्द का प्रयोग कर्मग्रन्थ में मिलता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में जीवों को गुण कहा है। उनके अभिमतानुसार चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि की भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं । परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने से जीवस्थान को गुणस्थान कहा है। गोम्मटसार में गुणस्थान को जीव समास भी कहा है। षट्खण्डागम की धवलावृत्ति के अनुसार जीव गुणों में रहते हैं एतदर्थ उन्हें जीव-समास कहा है। कर्म के उदय से उत्पन्न गुण औदयिक हैं। कर्म के उपशम से उत्पन्न गुण ओपशमिक हैं । कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न गुण क्षायोपशमिक हैं। कर्म के क्षय से उत्पन्न गुण क्षायिक हैं। कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना उत्पन्न गुण पारिणामिक हैं। इन गुणों के कारण जीव को भी गुण कहा जाता है । जीवस्थान को पश्चात्वूर्वी साहित्य में इसी दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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