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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि लाभ किंवा स्वरूप-स्थिति नहीं हो सकती। इसलिए वह मोह की दूसरी शक्ति को मन्द करने के लिए प्रयास करता है। जब वह उस शक्ति को अंशत: शिथिल कर पाता है; तब उसकी और भी उत्क्रान्ति हो जाती है, जिसमें अंशत: स्वरूप-स्थिरता या परपरिणति-त्याग होने से चतुर्थ भूमिका की अपेक्षा अधिक शान्ति-लाभ होता है । यह देशविरति-नामक पाँचवाँ गुणस्थान है। (६) प्रमत्त याने सर्व-विरति
देशविरति गुणस्थान में विकासगामी आत्मा को यह विचार होने लगता है कि यदि अल्प-विरति से ही इतना अधिक शान्ति-लाभ हुआ तो फिर सर्व-विरति-जड़ भावों के सर्वथा परिहार से कितना शान्ति-लाभ होगा? इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त आध्यात्मिक शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह विकासगामी आत्मा चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूप-स्थिरता व स्वरूप-लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करती है। इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व-विरति संयम प्राप्त होता है, जिसमें पौद्गलिक भावों पर मूर्छा बिलकुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है। यह ‘सर्व-विरति' नामक षष्ठ गुणस्थान है। इसमें आत्म-कल्याण के अतिरित्त्क लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है, जिससे कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद आ जाता है। (७) अप्रमत्त याने संयत ___पाँचवें गुणस्थान की अपेक्षा, छठे गुणस्थान में स्वरूप-अभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति के अनुभव में जो बाधा पहुँचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता।
अतएव सर्व-विरति जनित शान्ति के साथ अप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करती है
और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन-चिन्तन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देती है। यही' अप्रमत्त याने संयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है। इसमें एक
ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए उत्तेजित करता है और दूसरी और प्रमाद-जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं।
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