Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ २८० समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि वस्तुत: चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्दु पर केन्द्रित करना कठिन है, क्योंकि यह किसी भी विषय पर अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा टिक नहीं पाता तथा एक मुहूर्त ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् यह स्थिर नहीं रहता और यदि हो भी जाय तो वह चिन्तन कहलायेगा अथवा आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा । प्रकारान्तर से ध्यान अथवा समाधि वह है, जिसमें संसार-बंधनों को तोड़नेवाले वाक्यों के अर्थ का चिन्तन किया जाता है अर्थात् समस्त कर्ममल नष्ट होने पर सिर्फ वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाने का प्रयत्न किया जाता है । ध्यान को साम्य भाव बताते हुए कहा है कि योगी जब ध्यान में तन्मय हो जाता है, तब उसे द्वैत ज्ञान रहता ही नहीं और वह समस्त रागद्वेषादि सांसारिकता से ऊपर उठकर चित् स्वरूप आत्मा के ही ध्यान में निमग्न हो जाता है। ध्यान में आलम्बन के दो प्रकार माने गये हैं - रूपी और अरूपी । अरूपी आलम्बन मुक्त आत्मा को माना गया है। तथा इसे अतीन्द्रिय होने के कारण अनालम्बन योग भी कहा गया है। रूपी आलम्बन इन्द्रियगम्य माना गया है और बताया है कि दोनों ही ध्यान छद्मस्थों के होते हैं । यद्यपि रूपी अथवा आलम्बन के ध्यान के अधिकारी योगी छठे गुणस्थान तक अपने चारित्र का विकास करने में सक्षम होते हैं तथा अनालम्बन के अधिकारी सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक । जब सालम्बन ध्यान ही सांसारिक वस्तुओं से हटकर आत्मा के वास्तविक स्वरूपदर्शन में तीव्र अभिलषित हो जाता है, तब निरालम्ब ध्यान की निष्पत्ति होती है । आत्मसाक्षात्कार होने पर ध्यान रह ही नहीं जाता, क्योंकि ध्यान एक विशिष्ट प्रयत्न का नाम है, जो केवलज्ञान के पहले या योग निरोध करते समय किया जाता है। इस प्रकार निरालम्ब ध्यान की सिद्धि हो जाने पर संसारावस्था बंद हो जाती है और इसके बाद केवलज्ञान और केवलज्ञान में “अयोग' नामक स्थिति प्रकट होती है, जो परमनिर्वाण का ही अपर नाम है। जैन दृष्टि से जैसे योग की आठ श्रेणियाँ बताई हैं वैसे ही ध्यान के चार प्रकार बताये गये हैं - १ आर्तध्यान, २. रौद्रध्यान, ३. धर्मध्यान, ४. शुक्लध्यान । ___ आर्तध्यान की उत्पत्ति मोहयुक्त कामनाओं से होती है। इष्ट वियोग, अनिष्ट योग, रोग और तृष्णा । मनुष्य जिस वस्तु की चाह रखता है, जिसे पाना चाहता है वह न मिलने, वस्तु का वियोग होने से वह आक्रन्द करता है, शोक करता है, आँसू बहाता है, विलाप करता है। वैसे ही जो बात नहीं चाहता वह आती है उसे टालने के लिए किया हुआ चिन्तन या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348