Book Title: Samatvayoga Ek Samanvay Drushti
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Navdarshan Society of Self Development Ahmedabad

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Page 291
________________ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,.... २६९ चित्त रंग जाता है। राग से रंगा हुआ मन प्रीति का अनुभव करता है और प्रीति से लोभ, माया, वासना और परिग्रह के प्रति मोह जागता है। द्वेष अहंकार को जन्म देता है। अहंकार से क्रोध, घृणा और तिरस्कार उत्पन्न होता है, जिससे दु:खों की परम्परा निर्माण होकर अनन्त सुख जिसका सहज स्वभाव है वह आत्मा दुःखी बनती है। उस पर कषायों के कारण विविध आवरण आकर दु:ख का अनुभव करने लगती है। उससे मुक्त होने का व्यवस्थित और मनोवैज्ञानिक मार्ग योग है। जैन धर्म ने सारे दु:खों का मूल हिंसा माना है और परम मांगल्य अहिंसा को। अहिंसा सभी सुखों की जननी है। अहिंसा की व्याख्या है - प्राणिमात्र के प्रति समता । बुद्ध ने भी शील, समाधि और प्रज्ञा द्वारा समता लाने को कहा है और भगवद् गीता का तो हार्द ही समता है। आभ्यन्तर विकास और प्रज्ञा के प्रकर्ष के लिए योग के सिवा कोई दूसरा प्रभावशाली मार्ग नहीं है । जैन धर्म में ऋषभदेव से लगाकर महावीर तक २४ तीर्थंकर परमयोगी थे। भगवान् महावीर के साधनाकाल का जो वर्णन मिलता है उसमें ध्यान पर अधिक भार दिया गया है। उन्होंने समता की ऐसी साधना की कि साधनाकाल में जो भयानक उपसर्ग लोगों की ओर से दिये गये वे समता-पूर्वक सहन किये। __योगदर्शन से समानता रखते हुए भी जैन दर्शन का अपना एक वैशिष्ट्य भी है। जैन दर्शन में चित्तवृत्ति निरोध का पर्यायवाची शब्द संवर प्रयुक्त है। किन्तु मात्र संवर को मोक्ष में प्रभावकारी नहीं माना गया है । जैन मान्यता के अनुसार कर्मों के ‘संवर' के साथ-साथ कर्मों की निर्जरा' भी अत्यन्त आवश्यक है और इस निर्जरा में 'तप' का, विशेषकर ध्यान का, महत्त्वपूर्ण स्थान है। तप को प्रमुखता देने के कारण ही जैन परम्परा को 'श्रमण पराम्परा' के नाम से भी अभिहित किया गया है। श्रमण' का अर्थ है श्रम' करने वाला, अर्थात् तपस्या करने वाला । संक्षेप में जैन मुक्ति-यात्रा का पथिक ऐसे रथ पर आरूढ़ होकर आगे बढ़ता है जिसके दो पहिए हैं। उन पहियों को संवर-निर्जरा, ज्ञान-क्रिया तथा निश्चयव्यवहार आदि विविध रूपों में निरूपित किया जा सकता है। इसीलिए जैन साधना में कायोत्सर्ग का अत्यन्त महत्त्व है। काया शरीर जिसका क्षण - क्षण में परिवर्तन होता है, उत्पाद-व्यय का क्रम चल रहा है, उस काया में जो कुछ चल रहा है, उसे देखना, मन में चलने वाली प्रत्येक वृत्ति, तरंग या संवेदना को देखना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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