________________
समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
२४५ है, न विकृति । योग-सिद्धान्त भी प्राय: इसी प्रक्रिया अनेकान्त या स्याद्वाद का मूल है। अनेकान्त स्यावाद और सप्तभंगी के सिद्धांत इनकी ही सुव्यवस्था करते हैं। (ब) न्याय, वैशेषिक और स्याद्वाद :
न्याय और वैशेषिक चिन्तन और प्रक्रिया में लगभग समान होने के कारण एक गिने जाते हैं। सप्त पदार्थ या सोलह पदार्थ लगभग समान हैं । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव आदि का वर्णन नित्यानित्यत्व दोनों को लिए हुए है। किन्तु ये दर्शन सर्वथा भेद के प्रतिपादक होने के कारण एकान्तवादी कहलाते हैं। इनका चिन्तन नैगम को मानता है। पतंजलि ने ईश्वर को तथा योग (अष्टांग) को इसके साथ मिलाकर नवीन दर्शन का निर्माण किया । जैन योग और पतंजलि योग बहुत कुछ समानता रखते हैं। इन दोनों दर्शनों ने प्रकृति को एक और अनेक मानकर स्यावाद की महत्ता का परिचय दिया हैं। प्रतीत होता है कि ये दर्शन इसके अभाव से सर्वथा वंचित नहीं रहे हैं। (स) पूर्व मीमांसा दर्शन और स्याद्वाद
मीमांसा दर्शन की उत्पत्ति वैदिक क्रियाकाण्ड को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए हुई थी। भावना, विधि, नियोग आदि के द्वारा वैदिक सूक्तों के अर्थों का निर्णय किया गया है। जहाँ तक दार्शनिक तत्त्वों का संबंध है, ये जैन दर्शन के समान ही उत्पाद, व्यय, ध्रोव्यात्मक तत्त्व को ही मानते थे। इनके दो भेद हैं। १. भाट मत और, २. प्रभाकर मत । दोनों में बहुत थोड़ा अन्तर है। उत्पादादि त्रय को तत्त्व का स्वरूप मानने से इनकी आस्था स्याद्वाद में प्रतीत होती है । तत्त्व-संग्रहकार इनको स्याद्वाद का पोषक मानता था । इसलिए निर्ग्रन्थों के साथ-साथ ही इनका भी खंडन किया गया है। ये वेदों को अपने चिन्तन का आधार मानते हैं। वेद-प्रामाण्य एवं शब्द के नित्यत्व के सिद्धान्तों की आलोचना करके तैन दर्शनकार तीर्थंकर-प्रणीत आगम और शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि करते हैं। फिर भी दार्शनिक क्षेत्र में इनका चिन्तन सामान्य विशेषात्मक है। (द) वेदान्त और स्याद्वाद
भारतीय दर्शन में वेदान्त का विकास अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण है । यह ब्रह्मतत्त्व को मानता है । वह सत्-चित्-आनन्दमय है। ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है। जीव और १. न प्रकृति: न विकृति : पुरुषः। २. निर्विशेषं ही सामान्यं भवेच्छागविषाणवत् सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वेदेव हि।
कुमारिल-मीमांसा श्लाकवार्तिक ३. सत चित् आनन्दमय ब्रह्म।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org