________________
२५२
समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि दूसरा तर्क आचार्यश्री ने यह दिया है कि सबको सब स्वरूप मान लेने से एक शब्द से ही सब अर्थों का बोध हो जायेगा । साधारणत: अनेकान्त दर्शन में सबको सब स्वरूप नहीं माना गया है। यदि सबको सब स्वरूप मान लिया जाय तो पर या अन्य के अभाव से वस्तु भावाभावात्मक नहीं हो पायगी और वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता के लिए आवश्यक अन्य व्यावृत्ति रूप स्वभाव वस्तु का नहीं बन पायगा । यदि घट पटादि रूप हो जाय तो अन्य के अभाव हो जाने से अन्य व्यावृत्ति न हो पायगी । फलस्वरूप वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता नहीं रहेगी। अत: प्रत्यक्षबाध आवेगा । अनेकान्त का मूल सिद्धान्त है वस्तु को भावाभावात्मक आदि मानना । इस सिद्धान्त को भी क्षति पहँचेगी। अत: सबको सब स्वरूप नहीं माना जाता।
महर्षि बादरायण ने अपने ब्रह्म-सूत्र में सामान्य रूप से अनेकान्त तत्त्व में दूषण देते हुए कहा था। - "नै कस्मिन्न संभवात् ।” - एक वस्तु में अनेक धर्म नहीं हो सकते हैं।
शंकराचार्य ने ब्रहमसूत्र पर लिखित अपने सांख्य-भाष्य में उक्त सूत्र की व्याख्या में इसे “विवसन समय' लिखकर स्याद्वाद के सप्तभंगी नय में सूत्रनिर्दिष्ट विरोध के अलावा संशयदोष का भी संकेत किया है। सूत्र पर भाष्य लिखते हुए उन्होंने कहा है कि “एक वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म नहीं हो सकते हैं। जैसे कि एक ही वस्तु शीत और उष्ण नहीं हो सकती है। जो सात पदार्थ या पंचास्तिकाय बताये हैं, उनका वर्णन जिस रूप में है, वे उस रूप में भी होंगे और अन्य रूप में भी । यानी एक भी रूप से उनका निश्चय नहीं होने से संशय दूषण आता है। प्रमाता, प्रमिति, आदि के स्वरूप में भी इसी तरह निश्चयात्मकता न होने से तीर्थंकर किसे उपदेश देंगे और श्रोता कैसे प्रवृत्ति करेंगे ? पाँच अस्तिकायों की पाँच संख्या है भी और नहीं भी, यह तो बड़ी विचित्र बात है। एक तरफ अवक्तव्य भी कहते हैं, फिर उसे वक्तव्य शब्द से कहते भी जाते हैं। यह तो स्पष्ट विरोध है कि “स्वर्ग और मोक्ष है भी और नहीं भी, नित्य भी है और अनित्य भी।" तात्पर्य यह कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों का होना संभव ही नहीं है। अत: आर्हत मत का १. प्रत्याक्षादिन प्रमाणेन अनन्तधर्मात्मकस्यैव सकलस्य प्रतीते....
घट: स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावै:च न विद्यते । - षट्दर्शन समुच्चय, पृ. ३२९ २. ब्रहमसूत्र २१२१३३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org