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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
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प्रकार के भावों का समावेश हो जाने से उसकी भाषा मृदुल होती है । उसमें स्वगत की हठाग्रता दूर होकर समन्वय की प्रवृत्ति आ जाती है । उसकी भाषा में तिरस्कार भाव न होकर दूसरों के अभिप्राय, विवक्षा और दृष्टि को समझने की क्षमता आ जाती है । यही स्थिति उसकी मानसिक शुद्धि अर्थात् स्याद्वादमय वाणी के स्वीकरण की है, और वैसी स्थिति में मानव का आचार-व्यवहार पूर्णत: 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकम्' के अनुरूप हो जाता है ।
स्याद्वाद सिद्धान्त जैन तीर्थंकरों की मौलिक देन है क्योंकि यह ज्ञान का एक अंग है, जो तीर्थंकरों के केवल ज्ञान में स्वतः ही प्रतिबिंबित होता है । स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा मानसिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं, और वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है इसको पाकर मानव अन्तर्द्रष्टा बनता है । स्यादवाद का प्रयोग जीवन-व्यवहार में समन्वयपरक है । वह समता और शान्ति को सर्जता है, बुद्धि के वैषम्य को मिटाता है ।
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भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ मनीषी डॉ. रामधारीसिंह दिनकर का स्पष्ट अभिमत है कि " स्यादवाद का अनुसंधान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनाएगा विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी ।'
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जैन दर्शन युक्तिपूर्ण तथ्यों को ग्रहण करने का सदैव सन्देश प्रस्तुत करता है उसका व्यक्तिविशेष में कोई आग्रह नहीं बल्कि वह तो सिद्धांत की उदात्त प्रवृत्ति पर बल देता है। आचार्य हरिभद्र का कथन इसी तथ्य की पुष्टि करता है ।
" पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । "
- भगवान् महावीर के प्रति न तो मेरा विशेष अनुराग है, और न ही सांख्यदर्शन प्रवर्तक कपिल आदि से कोई द्वेष ही है। जिसका कथन युक्तिपूर्ण हो उसे स्वीकार करना चाहिए ।
६. अनेकान्तवाद और अन्य दार्शनिक प्रणालियाँ
१. वैदिक दर्शन और स्यादवाद
अन्य दर्शनों में स्यादवाद का क्या स्थान है ? -यह विषय भी अपना एक मौलिक स्थान रखता है। वैदिक-दर्शन के अध्ययन से प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि स्याद्वादिक प्रक्रिया से परिचित थे । अन्यथा वे नासदीय सूक्त में सत् और असत् दोनों का विरोध न
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