________________
जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
१२५ से होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जावेगा।
सम्यग्दर्शन की महिमा और गरिमा का शास्त्रकारों और समर्थ आचार्य ने स्थानस्थान पर विविध रूप से वर्णन किया है।
नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नात्थि मोक्खो, नात्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और मोक्षप्राप्ति के बिना कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता। तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व से ज्ञान की प्राप्ति हाती है, ज्ञान से चारित्र और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार क्रम से सर्वगुणों की प्राप्ति होने से जीव समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। अतएव समस्त गुणों के मूलभूत सभ्यक्त्व को सर्वप्रथम प्राप्त करने का प्रयास अपेक्षित है।
स्वामी समन्तभद्र ने सम्यक्त्व की महत्ता बताते हुए कहा - यह सम्यग्दर्शन तो मोक्षमार्ग में कर्णधार है, इसके बिना न कोई भवसागर से पार ही हो सकता है और न ज्ञानचारित्ररूप वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलप्राप्ति ही हो सकती है। सम्यक्त्व हीन साधु से सम्यक्त्व युक्त गृहस्थ मोक्षमार्गस्थ एवं श्रेष्ठ है। तीन लोक और तीन काल में सम्यक्त्व के समान कोई श्रेयस्कर नहीं और मिथ्यात्व के समान कोई अश्रेयस्कारी नहीं है। अन्त में पूरे सात श्लोको द्वारा सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए उन्होंने बताया इसके ही आश्रय से जीव उत्तरोत्तर विकास करते हुए तीर्थंकर बनकर शिव पद पाता है। ___कुन्दकुन्द स्वामी के सभी पाहुड सम्यक्त्व की महिमा से भरपूर है, फिर भी उन्होंने इसके लिए एक दंसणपाहुड की स्वतंत्र रचना कर कहा है कि दर्शन से भ्रष्ट ही व्यक्ति वास्तविक भ्रष्ट है, चारित्र भ्रष्ट नहीं, क्योंकि दर्शन - भ्रष्ट निर्वाणपद नहीं पा सकतमा । दर्शनविहीन व्यक्ति वन्दनीय नहीं हैं, सम्यक्त्व रूप जल का प्रवाह ही कर्म - बन्ध का विनाशक है, धर्मात्मा के दोषों को कहने वाला स्वयं भ्रष्ट है, सम्यक्त्व से हेय - उपादेय का विवेक प्राप्तहोता है, सम्यक्त्व ही मोक्ष महल का मूल एवं प्रथम सोपान है।
सम्यक्त्वविषयक उक्त वर्णन को प्राय: सभी परवर्ती श्रावकाचार - रचयिताओं ने अपनाया फिर भी कुछ ने जिन नवीन बातों पर प्रकाश डाला है, उनका उल्लेख करना आवश्यक है। १. उत्तरा. २८ अ. ३० गा.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org