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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि (३) वन्दन : मन, वचन और शरीर का वह व्यापार वन्दन है, जिससे पूज्यों के प्रति बहुमान प्रगट किया जाता है। शास्त्र में वन्दन के चिति-कर्म, कृति-कर्म, पूजा-कर्म आदि पर्याय प्रसिद्ध हैं।
(४) प्रतिक्रमण : प्रमादवश शुभ योग से गिर का अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करना, यह प्रतिक्रमण है।
(५) धर्म या शुक्ल ध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर पर से ममता का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है।
(६) त्याग करने को प्रत्याख्यान' कहते है। त्यागने योग्य वस्तुएँ (१) द्रव्य और (२) भावरूप से दो प्रकार की हैं। अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुएँ द्रव्यरूप हैं और अज्ञान, असंयम आदि वैभाविक परिणाम भावरूप हैं। ___ इन छ: आवश्यक क्रियाओं में 'सामायिक' को सबसे ऊपर प्रथम स्थान दिया गया है। जैन धर्म में सामायिक का महत्त्व कितना अधिक है इसकी प्रतीति हमें इससे होती है।
ये सभी छ: आवश्यक क्रियाएं परस्पर संलग्न हैं । इसलिए किसी भी आवश्यक क्रिया विधिपूर्वक, संपूर्ण भावपूर्वक की जाय तो उसमें अन्य सर्व क्रियाएं स्थूल या सूक्ष्म रूप से समाविष्ट हो जाती हैं । प्रतिक्रमण विधि में तो इन सर्व आवश्यक क्रियाओ का क्रम व्यवस्थित आयोजन किया गया हैं।
सामायिक के ‘करेमि भन्ते' सूत्र में इन सर्व आवश्यक क्रियाओ का निम्न प्रकार अर्थ बोध किया गया है :
(१) करेमि....सामाइयं.....
समता भाव के लिए विधिपूर्वक सामायिक करने की अनुज्ञा । इसमें ‘सामायिक' समाविष्ट हुआ है।
(२) भन्ते.....भदन्त.......भगवान ! जिनेश्वर भगवान से प्रार्थना । इसमें आज्ञापालन रूप 'चतुर्विशतिस्तव' है।
(३) तस्स भंते.....गुरुओ को वंदन करते करते आत्मनिंदा और गर्दा की जाती है । १. आ. नि. गाथा ११०३ २. स्वस्थानाधन्यपरस्थानं प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्चते ॥१।।
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