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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि दृष्टिकोण को ही महावीर ने अनेकान्तवाद या स्याद्वाद कहा । आइन्स्टीन का सापेक्षवाद,
और भगवान बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है।' अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। इस भूमिका पर ही आगे चलकर सगुण और निर्गुण के वादविवाद को, ज्ञान और भक्ति के झगड़े को सुलझाया गया। आचार में अहिंसा की और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की।
३. अनेकान्त की मर्यादा ___ अनेकान्त और स्यावाद का प्रयोग करते समय यह जागरूकता रखना बहुत आवश्यक है कि हम जिन परस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता वस्तु में प्रतिपादित करते हैं, उनकी सत्ता वस्तु में संभावित है भी या नहीं। अन्यथा कहीं हम ऐसा न कहने लगे कि कदाचित् जीव चेतन है, और कदाचित अचेतन भी । अचेतनत्व की जीव में संभावना नहीं है। अत: यहाँ अनेकान्त बताते समय अस्ति और नास्ति के रूपमें घटाना चाहिए। जैसे जीवन चेतन ही है, अचेतन नहीं।
वस्तुत: चेतनत्व और अचेतनत्व तो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व-अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं, विरोधी-से प्रतीत होने वाले धर्म हैं । वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं परन्तु हैं नहीं। उनकी सत्ता द्रव्य में एकसाथ पाई जाती है। अनेकान्त परस्पर विरोधीसे प्रतीत होने वाले धर्मों का प्रकाशन करता है।
__ हम ऊपर के प्रकरण में बता चुके हैं कि वस्तुस्थिति को देखकर अनेकान्त का उद्भव हुआ है । वस्तु का जैसा रूप-स्वरूप है उसको पूर्ण व यथार्थ रूप से देखने के लिए अनेकान्तवाद आया है। अर्थात् वस्तु का स्वरूप मुख्य है। जैसा वस्तु का स्वरूप है, वैसा ही तो हम अनेकान्त दृष्टि से देख सकते हैं । अनेकान्त को प्रयुक्त करने में हम इतने विवेकहीन न हो जायें कि वस्तु-स्वरूप के विरुद्ध ही कहने लग जायें । यह अनेकान्तवाद का दुरपयोग है। अत: वस्तु-स्वरूप की स्थिति के अनुसार बहुत जागरूकता के साथ अनेकान्त को लागू किया जाय । महावीर का स्याद्वाद रूपी नयचक्र अत्यन्त पैनी धारवाला है। इसे अत्यन्त सावधानी से चलाना चाहिए । अन्यथा धारण करने वाले का ही मस्तक %. Pandit Dalsukhbhai Malvania has shown with considerable care how
what was known as the Vibhajy-vāda in the later part of the Sarmana movement in India culminated in the Anekanta-vãda of Mahavir. (Santisuri, Nyayavatara - Vārttikavrtti, (Bombay : Bhartiya Vidya Bhavan.)
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