________________
१८९
समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक मुश्किल हो जाय । तदुपरान्त सामायिक में स्थिरकाय होकर एक-आसन पर बैठना आवश्यक है । भुख, तृषा, शौचादि, व्यापारों को लक्षमें रखकर और देह भी जकडा न जाय उसे ध्यान में रखकर यह काल मर्यादा निश्चित की गई है । सामायिक में बैठने वालों को सामायिक प्रोत्साहक होना चाहिए । शरीर के लिए वह दंड न बनना चाहिए। एक और दूसरी दृष्टि से भी यह काल उचित माना गया है । सामायिक में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चित्त को समभाव में रखना । सामान्य मानवी का मन किसी भी एक विचार, विषय, चिंतन, मनन के लिए दो घड़ी से अधिक स्थिर नहीं रह सकता। दो घड़ी के बाद चित्त में चंचलता और विषयांतर का प्रवेश होता है । भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि 'अंतो मुहूर्तकालं चित्तस्सेगग्ग या हवइ झाणं ।
(चित्त किसी भी एक विषय पर ध्यान एक मुहूर्त तक कर सकता है।) । ___ आधुनिक मानसशास्त्री और शिक्षाशास्त्रीओं ने भी इस बात को अपना समर्थन दिया है। कई-कई गृहस्थों के पास एक आसन पर बैठकर एकसाथ ही एक से अधिक सामायिक करने के लिए तन और चित्त की शक्ति होती है। उन्हें फिर से सामायिक अलग करने की और लेने की विधि करने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु ऐसे व्यक्तियों को भी एकसाथ तीन से अधिक सामायिक नहीं करना चाहिए। तीन सामायिक संपूर्ण करने के बाद अलग-अलग की विधि को करने के बाद ही पुन: विधिपूर्वक चौथा सामायिक का प्रारंभ करना चाहिए। चित्त के उपयोग को लक्ष्य में रखकर ऐसा निर्देश किया है । _सामायिक लेने की विधि पूर्ण करने के बाद दो घड़ी का ४८ मिनट का समय गृहस्थों को सामायिक में व्यतीत करना पड़ता है। सामायिक लेने का और उसे अलग करने का समय इसमें समाविष्ट नहीं होता । इस ४८ मिनट में सामायिक-कर्ता को क्या करना चाहिए ? सामायिक-कर्ता इन ४८ मिनट में मन, वचन और काया के सावध योंगों को तज कर समत्व के अभ्यास से स्व-रूप में लीन हो जाय और आत्म-रमणता का अनुभव करे यही सामायिक का आदर्श है। किन्तु इस प्रकार एकसाथ ४८ मिनट तक आत्मरमणा में स्थिर होना महान त्यागी पुरुषों के लिए भी दुष्कर है। फिर गृहस्थों की तो बात ही क्या ? गृहस्थ के लिए तो यह शिक्षाव्रत है इसलिए गृहस्थों को इसका अभ्यास करना चाहिए। प्रारंभ में तो इन ४८ मिनट कैसे व्यतीत करना यह प्रश्न भी उपस्थित हो सकता है। इसलिए शास्त्रकारों ने बताया है कि सामायिक में स्वाध्याय करना चाहिए । सामायिक विधि में भी स्वाध्याय के लिए गुरु महाराज की अनुज्ञा आवश्यक है। अपनी रुचि और शक्ति के अनुसार आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय हो सकता है। और स्वाध्याय के प्रकार हैं वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org