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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि शास्त्रों में स्थानस्थान पर सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन किया गया है -
“सद्धा परम दुल्लहा"। महामूल्यवान श्रद्धारूपी रत्न बहुत दुर्लभ है। जो वस्तु दुर्लभ होती है वह अनमोल और महत्त्वपूर्ण होती है।
सम्यग्दर्शन रूपी चिन्तामणी रत्न की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है।
नवतत्त्व प्रकरण की निम्न गाथाओं में सम्यक्त्व का स्वरूप बताकर उसका अपूर्व लाभ बताया गया है -
जीवाइ नवपयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सहन्ते अयाणमाणे वि सम्मत्तं ।। सव्वाइं जिनेसरभासिआई वणगाइ नन्नहा हुंति । इअ बुद्धि जस्स मणे सम्मत्तं निच्चलं तस्य ।। अंतो मुहुत्तमित्तंपि, फासियं हुज जेहि सम्मत्तं ।
तेसिं अवड् ढपुग्गल परियट्टो चेव संसारो ॥२ अर्थात् जो जीवादि नव तत्त्वों का ज्ञाता है उसे सम्यक्त्व होता है। कदाचित् क्षयोपशम की तरतमता से कोई यथार्थ रूप से तत्त्वों को नहीं जानता है, किन्तु “तं मेव सच्चं जं जिणेहि पवेइयं" - जो जिनेश्वर देव ने कहा है वह सत्य है, ऐसी श्रद्धा करता है, तो उसे सम्यक्त्व है। जिनेश्वर भगवंतो के वचन अन्यथा कदापि नहीं होते, ऐसी दृढ़ श्रद्धा जिसको प्राप्त है उसका सम्यक्त्व निश्चल होता है।
सम्यग्दर्शन वह आधारभूत भूमिका है, जिसके उपर चारित्र रूपी महल खड़ा किया जा सकता है। जब तक दर्शन रूपी आधार दृढ़ नहीं हो जाय, तब तक पूर्वो का श्रुत भी मिथ्याज्ञान रूप रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि - नत्थि चरितं सम्मत्त विहणं । __अर्थात्सम्यक्त्व के बिना, श्रद्धा के बिना, वास्तविक विश्वास के बिना, सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती है। विश्वास के अभाव में चारित्र केवल बाह्य साधारण आचरण सा है। वह मोक्ष की तरफ बढ़ाने वाला वैराग्यमय सुन्दर चारित्र नहीं कहा जा सकता। १. उत्तराअ. ३ गाथा ८ २. नवतत्त्व प्रकरण ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २८ गाथा २९
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