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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि विसुद्धिमाग्ग में शील के चार रूप वर्णित है।'
१. चेतनाशील, २. चैत्तसिक शील, ३. संवर शील और ४. अनुलंधन शील १. चेतना शील :
जीवहिंसा आदि से विरत रहने वाली या व्रत प्रतिप (व्रताचार) पूर्ण करने वाली चेतना ही चेतना शील है। जीव-हिंसा आदि छोड़नेवाले व्यक्ति का कुशलकर्मों के करने का विचार चेतना शील है। २. चैतसिक शील :
जीवनहिंसा आदि से विरत रहने वाले की विरति चैतसिक शील है, जैसे वह लोभ रहित चित्त से विहरता है। ३. संवरशील
संवर शील पाँच प्रकार का है - १. प्रतिमोक्ष संवर, २. स्मृति संवर, ३. ज्ञान संवर, ४. क्षांतिसंवर और ५. वीर्य संवर। ४. अनुल्लंघन शील :
ग्रहण किये हुए व्रत नियम आदि का उल्लंघन न करना यह अनुल्लंघन शील है। शील के प्रकार :
'विसुद्धिमग्ग' में शील का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। यहाँ उनमें से कुछ रूप प्रस्तुत हैं। शील का द्विविध वर्गीकरण।
१ चारित्र -वारत्रि के अनुसार शील दो प्रकार का माना गया है। भगवान के द्वारा निर्दिष्ट 'यह करना चाहिए' इस प्रकार विधि रूप में कहे गए शिक्षा-पदों या नियमों का पालन करना 'चारित्र - शील'' है । इसके विपरीत ‘यह नहीं करना चाहिए' इस प्रकार निषिद्ध कर्म न करना 'वारित्र - शील' है । चारित्र - शील विधेयात्मक है, वारित्र - शील निषेधात्मक है।
२. निश्रित और अनिश्रित के अनुसार शील दो प्रकार का है। निश्रय दो प्रकार के होते हैं - तृष्णा-निश्रय और दृष्टि-निश्रय । भव-संपत्त को चाहते हुए फलाकांक्षा से पाला गया शील तृष्णा १. विसुद्धिमग्ग, पृ. ९ २. विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृ. १३-१४
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