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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
१३७ प्रति और साधर्मी भाइयों के प्रति तो अपनी वात्सल्य - भावना का विस्तार होना चाहिए। वात्सल्य - भाव करने वालों को सबक लेना है कि समाज में रहते हुए कभी कुछ बोलने अथवा सुनने का प्रसंग आ जाए तो भी अपने क्षमा गुण का विकास करें, आत्मवत् व्यव्हार का ख्याल करें अपने वात्सल्य का निर्झर बहाते रहे।" (८) प्रभावना:
साधना के क्षेत्र में स्वपर कल्याण की भावना होती है। जैसे पुष्प अपनी सुवास से स्वयं भी सुवासित होता है और दूसरों को भी सुवासित करता है वैसे ही साधक सदाचरण और ज्ञान की सौरभ से स्वयं भी सुरभित होता है और जगत् को भी सुरभित करता है। साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत के अन्य प्राणियों को धर्म - मार्ग की और आकर्षित करना ही प्रभावना है। प्रभावना आठ प्रकार की है : (१) प्रवचन, (२) धर्मकथा, (३) वाद, (४) नैमित्तिक, (५) तप, (६) विद्या (७) प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और (८) कवित्व शक्ति । ६. सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति के योग से आत्मा में प्रकट होने वाले उसके पांच लक्षण :
सम्यग्दर्शन की, प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि साधक आत्मा के विभिन्न स्वरूपों को पहचाने । जैन संस्कृति में आत्मा के तीन रूप हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। प्रथम स्थिति में साधारण जन आत्मा और शरीर को एक द्रव्य मानकर पर - पदार्थों में मोहित बना रहता है। उसके संचरण का यही मूल कारण है। २ द्वितीय स्थिति में यह मोहबुद्धि दूर हो जाती है । और साधक इसके बाद तृतीय अवस्था अन्तरात्मा को प्राप्त कर लेता है। यहाँ तक पहुंचते पहुँचते वह आत्मा के मूल स्वरूप को पहचानने लगता है और मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ्य भावनाओं को आते हुए शत्रु - मित्र में, मान - अपमान में, लाभ - अलाभ में लोष्ठ - काञ्चन में समदृष्टिवान हो जाता है। तदनन्तर वह निर्मल, केवल, बुद्ध, विविक्त, अक्षय परमात्मपद प्राप्त कर लेता है।
शास्त्रो में सम्यक्त्व के व्यवहार और निश्चय, तथा द्रव्य और भाव ऐसे विविध भेदों का वर्णन किया गया है। निश्चय सम्यक्त्व की अपेक्षा से शास्त्रकार परमर्षि ने सम्यक्त्व के पांच लक्षणों का भी सुन्दर वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त पुण्यात्मा ऐसे उपशान्तभाव को प्राप्त करता है कि उसके योग में वह किन्हीं भी संयोगों में अपने अपराधी के प्रति भी क्रोध नहीं करता। अपना चाहे जितना गम्भीर अपराध किसी ने किया हो, तो भी उसका बुरा हो' ऐसा विचार तक उसके हदय में पैदा नहीं होता। वह क्रोध के वशीभत नहीं होता बल्कि क्रोध उसके वश में होता १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३० २. ज्ञानार्णव ३२ ६, ३. समाधि १५, ४. तत्वार्थसूत्र, ७.११, ५. समाधि ६
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