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समत्वयोग का आधार - शान्त रस तथा भावनाएँ
चाहिए । इस पुरुषार्थ का नाम ही समत्व -साधना या आत्मसाधना है ।
आध्यात्मिक साधना के रूप में, समतायोगी भी समत्व की साधना करता है । समत्वसाधना का अर्थ है, अपनी आत्मा की साधना याने अपने स्वभाव में स्व स्वरूप में रमण करने की साधना । चूँकि 'भगवती सूत्र' में स्पष्ट बताया गया
है
'आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे'
आत्मा ही सामायिक है, आत्मा ही सामायिक (समतायोग) का प्रयोजन अर्थात् उद्देश्य है । अपने आप में स्थिर रहना ही सामायिक है । समत्वसाधना का उद्देश्य अपने अविवेक, फलाकांक्षा, सिद्धियों का मोह, अनाचार - अतिचार - अहंकार का निराकरण तथा कामनाओं एवं दृष्टियों का परिशोधन करना है ।
१. नियमसार में कहा है
आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं ।
तेण दु सामण्णसुभं संपुट्ठ होदि जीवस्स || १४७॥
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वास्तव में समत्व-साधना वह शक्ति उत्पन्न करती है, जिससे आत्मबल विकसित हो सके और आत्मनिर्माण के पथ पर चलने की पैरों में क्षमता रह सके । समत्वसाधना वह साहस पैदा करती है, जिसके आधार पर प्रलोभनों और आकर्षणों को ठुकराते हुए, कर्त्तव्य की चट्टान पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर रहा जा सके, और प्रत्येक विघ्नबाधा, कठिनाई और परीषह का धैर्य और सन्तुलन के साथ सामना किया जा सके | समत्वसाधना अन्तःकरण में वह प्रकाश उत्पन्न कर देती है, जिससे हेय, ज्ञेय और उपादेय को तथा स्वभाव और परभाव को जाना जा सके। समत्वसाधना जितनी सच्ची और प्रखर होगी, साधक उतना ही महान बनता चला जाएगा । तब उसे परमात्मा से कुछ माँगना नहीं पड़ेगा । वह स्वयं परमात्मा के निकट जा पहुँचेगा । समत्वयोग के ये चार स्तम्भ हैं । इन्हें दृढ़तापूर्वक अपनाकर समत्वसिद्धि प्राप्त की जा सकती है I
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यदि तू अपने आप में वास चाहता है तो आत्मस्वभाव में स्थिरता कर । इसी से जीव का सामायिक (समत्वगुण) सम्पूर्ण होता है ।
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