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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि भारतीय इतिहास में राम-रावण युद्ध की कथा प्रसिद्ध है । रावण के अपराधों और पापों का दण्ड देने के लिए स्वयं राम लंका के रणक्षेत्र में उतर आए थे । इधर रावण अपने पापों पर पुण्य की मुहर लगाने के लिए जीतोड़ परिश्रम कर रहा था। रावण को हित की बात समझाने-बुझाने के बाद भी जब वह नहीं माना तो निरुपायता से यह युद्ध हुआ था, रावण के द्वारा लादा गया था। दोनों ओर के हजारों सैनिक युद्ध में काम आ गये थे, यहाँ तक कि रावण के पक्ष के मेघनाद, कुम्भकर्ण आदि बड़े-बड़े योद्धा सदा के लिए सो गये, तब रावण का दिल काँप उठा । वह सोचने को मजबूर हुआ कि आखिर इतनी विशाल सेना होते हुए भी मेरी हार पर हार होने का कारण क्या है ? रावण ने युद्ध में हार का कारण अपनी अनीति, दुराचार और अहंकार को नहीं माना, उसकी दोषदृष्टि ने इसका कारण सीता को माना । उसने सोचा - "सीता के चरण ही अमंगल हैं । जहाँ इसके चरण पड़े, वहाँ सर्वनाश हो गया । जनक के यहाँ जन्मी तो बेचारे पिता को वन-वन भटकना पड़ा, विवाहित होकर अयोध्या में आई तो वहाँ दशरथ के प्राण पखेरू उड़ गए,
और इसके पति को १४ वर्ष जंगलों में कष्ट से बिताने पड़े और जबसे लंका में इसके चरण पड़े, तब से प्रतिदिन कोई न कोई अशुभ समाचार सुनने को मिल रहे हैं । कभी अशोकवाटिका का सत्यानाश हुआ, तो कभी अक्षयकुमार मरा । इसी के कारण सोने की लंका राख की ढेरी हो गई और आज मेरे दोनों वीर योद्धा समाप्त हो गये । वस्तुतः सीता के चरण ही सर्वनाश के कारण हैं।' यह है दोष-दृष्टिपरायण रावण का अशुभ चिन्तन । सोचना यह है कि सर्वनाश का कारण सती-साध्वी सीता के चरण हैं या रावण की दुराचार में फंसी हुई बुद्धि ?
समतायोगी साधक में जब प्रमोदभावना साकार होती है, तो वह गुणी पुरुषों के प्रति अपना सर्वस्व तन-मन-साधन न्योछावर करने को तैयार हो जाता
नालन्दा विश्वविद्यालय के विद्यार्थी उमंग-भरे हृदयों से चीनी पर्यटक हुएनसांग को भावभीनी विदाई देने जा रहे थे। सिन्धु नदी के जल पर चलती एक नौका में विद्यार्थी और हुएनसांग धर्म-चर्चा कर रहे थे । अकस्मात भारी तुफान आया। नौका तीव्रता से डोलने लगी । स्थिर रखने के सभी प्रयास विफल हुए । तब नाविकों ने कहा - "अब बचने का एक ही उपाय है, इन सारी पुस्तकों और मूर्तियों को जल में फेंक दिया जाय तो भार कम हो जाने से नौका धीरे-धीरे किनारे
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