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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ ने जब अपनी प्रशंसा सुनी तो उनके अन्त:करण का सारा कलुष धुल गया । वे वसिष्ठ ऋषि के चरणों में गिरकर अपनी भूल के लिए फूटफूटकर रोने लगे । वास्तव में, दूसरों का सुधार करने और उनके दोषों का उन्मूलन करने में प्रशंसा और प्रोत्साहन का मार्ग सर्वश्रेष्ठ है ।।
दूसरों के अवगण देखना टी.बी., केंसर आदि रोगों की अपेक्षा भी भयंकर मानसिक रोग है । इस रोग से व्यक्ति के विकास के मूल में क्षयकोट लग जाता है। दोषदृष्टि से व्यक्ति अच्छे काम में लगाये जा सकने वाले समय को नष्ट करता
वास्तव में परदोष दर्शन एवं निन्दा की प्रवृत्ति जीवन के उत्कर्ष, विकास एवं सफलता की घोर विरोधी है। छिद्रान्वेषी व्यक्ति दूसरों की निन्दा में विशेष रुचि लेता है। उसे संसार में कुरूपता के सिवाय और कुछ नजर ही नहीं आता । संसार के सभी मनुष्य उसे दुष्ट, दुराचारी दिखाई देते हैं । सारी दुनिया उसे बुराइयों से भरी हुई, अपने प्रति शत्रुता रखने वाली दिखाई देती है।
मनोविज्ञान का यह एक सामान्य नियम है कि व्यक्ति जैसा चिन्तन-मनन करता है, जिस बात को बार-बार सोचता, मानता और कहता-करता है, या जिसमें रुचि रखता है, वही बात मनःशक्ति की क्रियाशीलता का क्षेत्र बन जाने से, वैसी ही वृत्ति-प्रवृत्तियों का एक स्वभावचित्र उसके मन में बन जाता है और वही धीरेधीरे व्यक्ति की अन्तश्चेतना पर छा जाता है । तात्पर्य यह है कि दोषदर्शी दूसरे के जिस दोष का चिन्तन करता है, वही उसके जीवन में, स्वभाव में एवं संस्कारों में आ जाता है । फलतः दोषदर्शी को विक्षोभ, अशान्ति, व्याकुलता और हताशा के अलावा और कोई उपलब्धि नहीं होती ।
दोषदृष्टि लेकर चलने वाला मानव गुणों की अपेक्षा दोषों को ही खोजता है । उसकी दृष्टि गुणों पर ठहरती ही नहीं है । मक्खी के सामने एक ओर सुन्दर मिठाइयाँ रखी हों, और पास में ही विष्ठा हो तो उसकी रुचि विष्ठा पर बैठने की होगी । कौए के सामने सुन्दर भोजन पड़ा हो तो भी उसे छोड़कर पास में ही पड़े शव पर अपनी चोंच मारेगा क्योंकि उसकी रुचि वैसी ही बन गई है। इसी प्रकार दोषदर्शी मानव अच्छाइयों और गणों से भरा थाल छोड़कर बुराइयों की लाशों या विष्ठा को कुरेदने में ही आनन्द मानता है ।
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