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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि ९. समत्वयोग और महात्मा गाँधी समता भावरूप है । उसका सम्बन्ध मन की आन्तरिक चेतना से है, विवेक से है, विचार से है । समतायुक्त जीवन जीने की एक अलग ही कला है । मन की शुद्ध, बुद्ध, उच्च, निर्लेप और निःसंग स्थिति की परिणति समता में होती है । यह मानव-मन की एक ऐसी ऊँची भूमिका है, जो लम्बी और कठिन साधना के बाद ही किसी योग-युक्त साधक को कभी सुलभ हो पाती है। मेरे विचार में इसके मूल में आत्मा की समता संचित है । जिसे आत्मा की समता सच्ची प्रतीति हो लेती है उसके जीवन में और व्यवहार में समता का उदय क्रम क्रम से होता जाता है और अन्त में वह समतानिष्ठ होकर जीने लगता है । गाँधीजी ने अपने जीवन और कार्य द्वारा अपनी समतानिष्ठा और सत्यशीलता का दर्शन कराया। वे अपने युग के एक महान समत्वशील व्यक्ति थे।
गाँधीजी का जीवन मूलतः अध्यात्म-केन्द्रित था । लेकिन उनका अध्यात्म ऐकान्तिक अनुभूति नहीं था, उनके जीवन में अनुभूति व्याप्त हो गयी थी और अनायास ही उनका समग्र जीवन अध्यात्म के विराट विकरण का केन्द्र बन गया था ।
अपनी आत्मकथा के आरम्भ में गाँधीजी ने किशोरावस्था में अपने मांसाहार का जो अनुभव लिखा, उससे हमें उनके मन में छिपी, बीज-रूप में बैठी समता का संकेत मिलता है । जिस दिन अपने मित्र के कहने पर छुपकर उन्होंने बकरे का मांस खाया तभी उन्हें लगा कि वह बकरा उनके पेटमें पड़ापड़ा मिमिया रहा है । उन्हें अपनी उस उमर में भी यह बात अच्छी नहीं लगी कि एक जीवधारी दूसरे जीवधारी को मारकर उसका मांस पकाए और खाए । उसी दिन से उन्होंने मांस नहीं खाने की सौगन्ध ले ली तथा जीवन पर्यन्त उसको निभाया । अहिंसा और समता का अंकुर गाँधी के जीवन में तभी से अंकुरित हुआ ।
दक्षिण अफ्रिका में गाँधीजी को कदम-कदम पर अपमान, तिरस्कार और भेदभाव का अनुभव हुआ । यह व्यवहार उनकी समत्व-भावना के लिए एक चुनौती थी । किन्तु दक्षिण अफ्रिका में ही उन्होंने मान-अपमान, सुख
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