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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
महावीर की करुणा भी मानवमात्र ही नहीं अपितु जीवमात्र की पीड़ा का सतत बोध कर उसके निवारणार्थ मार्ग खोज रही थी और वर्षों की तपसाधना के बाद उन्होंने कुछ मूलभूत सत्य निकाल कर प्रस्तुत किये । महावीर का अपरिग्रह, उनकी अहिंसा समग्र जीवनसत्ता के परम सत्य को साकार करते हैं । परिग्रह को उन्हों ने हिंसा माना है और अपरिग्रह को अहिंसा की एकमात्र शर्त । परिग्रह को उन्होंने मूर्च्छा माना है और अपरिग्रह को जागरण का प्रतीक, परिग्रह को उन्होंने शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार एवं वैषम्य के अलावा प्रमाद, लापरवाही, अज्ञान एवं आत्म-विस्मृति का स्रोत भी अनुभव किया है। महावीर और मार्क्स की मूल दृष्टि में अन्तर यही है कि जहाँ मार्क्स को पूँजीवादी व्यक्ति घृणास्पद प्रतीत होता है, महावीर उसे करुणा का पात्र अनुभव करते हैं, क्योंकि वह वस्तु केन्द्रित होकर अपनी आत्मसंज्ञा खो चुका है, जीवित शव की तरह आत्मचेतनाशून्य कालयापन कर रहा है, चिन्ता, क्रोध, तनाव, वेदना के असंख्य शल्यों से अपने को निपीड़ित कर रहा है किसी उन्मत्त कापालिक की तरह और सर्वत्र घृणा तथा वैर का प्रबंध कर रहा है। वह मूर्छित है, एक प्रकार का मानसरोगी है जिसका सहानुभूतिपूर्वक उपचार अपेक्षित है और उसका एकमात्र मार्ग है उसकी चेतना का जागरण ।
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महावीर शोषण को हिंसा मानते हैं, हिंसा को एक प्रकार का शोषण ही मानते हैं । अतः शोषण से शोषण का विनाश संभव नहीं है, यह उनकी स्पष्ट मान्यता है । महावीर शोषण को अनाचार मानते हैं । तथा अनाचार मूलतः शोषण ही है, यह भी वे जानते हैं । अतः उनका मंतव्य है कि अनाचार के एक प्रकार से उसके दूसरे प्रकार का उन्मूलन सम्भव ही नहीं है ।
अतः महावीर ने वैषम्य और शोषण के प्रतिकार का मार्ग बताया वह सम्पूर्णत: अहिंसक है लेकिन उसमें मानवीय चेतना की तेजस्विता है, सामाजिक चेतना की समवेत शक्ति है, संगठन का बल है । असहकार और अवज्ञा के जिन अहिंसक शस्त्रों का गाधीजी ने भारत के स्वातन्त्र्य संग्राम में प्रयोग किया वे महावीर के द्वारा सर्वप्रथम तीन करण और तीन योग के रूप में निरूपित किये जा चुके हैं । महावीर के मार्ग का अनुसरण करने वाला व्यक्ति अपने में एक विस्फोटित परमाणु की तरह अपार शक्ति का साकार पुँज है जो सारे समाज में क्रान्तियों की एक श्रृंखला प्रसारित करने में समर्थ हैं ।
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