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समत्वयोग और भेदविज्ञान
भेदविज्ञान का दीपक बिना जले शरीर के प्रति मोहादि विषमताओं के अन्धकार का नाश नहीं हो सकता, न ही समता का प्रकाश हो सकता है। भेदविज्ञान के बिना विषमता का घना अन्धकार समता की ज्योति को बुझा देगा । समता की ज्योति को सतत प्रज्वलित रखन के लिए भेदविज्ञान की मशाल को जलाए रखना आवश्यक है। दूसरी बात, भेदविज्ञान जब तक नहीं होगा, वहाँ तक शरीर और आत्मा इन दोनों में से शरीर ही प्रधान रहेगा, साधक शरीर को ही सर्वस्व समझता रहेगा । फलतः "आत्मा ही सामायिक(समतायोग) है, आत्मा के अर्थ ही सामायिक याने समतायोग की उपलब्धि का प्रयोजन है, यह जो सिद्धान्त है, उसका पालन नहीं हो सकेगा । समत्व की सिद्धि शरीर प्रधान दृष्टि के रहते नहीं हो सकेगी, क्योंकि शरीरादि पर ममत्व, समत्व का विरोधी है; शरीरादि भौतिक वस्तुओं पर ममत्व हटने पर आत्मा (आत्म-प्रधानदृष्टि) ही समत्व की अविरोधी होती
यह शरीर आत्मा नहीं है । शरीर तो आत्मा का क्षणिक निवासस्थान है । जब तक आत्मा शरीर से आबद्ध है, तब तक इसका सम्बन्ध वांछनीय सुख दुःख, या अच्छाई -बुराई से जुड़ा प्रतीत होता है; मगर वह सम्बन्ध शाश्वत नहीं है। जैसे दर्पण के आगे से मुँह फेर लेने से शरीरगत मुख का प्रतिबिम्ब नहीं रहता, वैसे ही मृत्यु के बाद शरीर नहीं रहता । विभिन्न शरीर कछ काल तक आत्मा को धारण करते हैं और चले जाते हैं । शरीर तो आत्मा की अभिव्यक्ति के लिए मात्र दर्पण है। शरीर से (जन्म-मरण से) सदा के लिए मुक्त होने पर आत्मा ज्यों की त्यों रहती है और वह परम ज्योति में - अनन्त आत्मा में विलीन हो जाती है। वहाँ अपना नाम, रूप, आकार आदि सब खो देती है। इस सृष्टि का अन्तिम सत्य यह आत्मा ही हैं।
वास्तव में समतायोग की साधना में भेदविज्ञान न होने पर शरीर, मन और वचन, ये तीनों बाधक बन जाते हैं । सर्वप्रथम शरीर है, जो प्रत्यक्ष नजर आता है। इस शरीर को ही व्यक्ति जब 'मैं' समझने लगता है, तब आत्मा की ओर दृष्टि जाती ही नहीं । उसे यह भान ही नहीं होता कि शरीर मरणधर्मा है, विनश्वर है । शरीर में जो छिपी हुई आत्मा है - वह अमरणधर्मा अविनाशी है। शरीर ही सर्वस्व बन जाए, तो व्यक्ति सिर्फ मरणधर्मा -मरणशील बन जायेगा, जब तक आत्मा या परमात्मा १. आया सामाइए, आया सामाइयस्य अट्टे भगवती सूत्र
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