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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएं कितने ज्ञात-अज्ञात प्राणियों का सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है, होगा और होता जा रहा है। उन प्राणियों के उपकारों का विचार करता हूँ तो कृतज्ञता से मेरा हृदय भर आता है। मैं सोचता हूँ उन प्राणियों के साथ कैसे मैत्री (प्रेम) करके मैं अपने प्रति किये गये, उपकारों का बदला चुकाऊँ ।" वास्तव में इस प्रकार से प्राणियों के उपकारों का चिन्तन करते हुए उनके प्रति कौटुम्बिकता की भावना हृदय में रखकर उनका हित-चिन्तन करना मैत्री का स्पष्ट रूप है । 'दशवैकालिक सूत्र' की हरिभद्रीय आवृत्ति में भी आहार करते समय साधुवर्ग के लिए षट्कायिक जीवों (समस्त प्राणियों) के प्रति कौटुम्बिकता की भावना का विधान किया है ।
अतः मैत्री चित्त की प्रसन्नता, सद्भावनापूर्ण आत्मीयता है, जीवन की मधुरता है। मैत्री का महत्त्व :
मैत्री जब हृदय में व्यापक रूप धारण करके आती है तब ये सारी क्षुद्रताएँ, संकीर्णताएँ, संकुचित स्वार्थभावना आदि समाप्त हो जाती है। उसकी आत्मा में व्यापकता और सर्वभूतात्मभावना आ जाती है । यही समतायोगी की सफलता है।
___ मैत्री समता और शान्ति के शिखर पर पहुँचने का प्रथम सोपान है। अपनी आत्मा को विकसित और विस्तृत बनाने का अगर कोई पुण्य साधन है तो मैत्री है। मैत्री के माध्यम से मनुष्य एक शरीर से सारे विश्व की आत्माओं तक पहुँच जाता है। जिसने मैत्रीभावना अपना ली, उसके लिए सारा विश्व ही अपना कुटुम्ब हो गया। वह विश्वकुटुम्बी बन जाता है । जिसके हृदय में मैत्रीभावना का निवास होता है, उसके हृदय में शुद्ध प्रेम, दया, सहानुभूति, आत्मीयता, बन्धुता, सहृदयता, करुणा, क्षमा, सेवा आदि दिव्य गणों का विकास होता रहता है। उसके जीवन में सुखसम्पदाओं की कोई कमी नहीं रहती ।
स्वामी रामतीर्थ अमेरिका की यात्रा कर रहे थे। उनके पास अपने शरीर और उस पर पड़े हुए थोड़े-से वस्त्रों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। किसी अमेरिका निवासी सज्जन ने उनसे पूछा .. "आपका अमेरिका में कोई सम्बन्धी नहीं है, आपके पास धन भी नहीं है, फिर अमेरिका में आप अपना निर्वाह कैसे करेंगे ?" स्वामी रामतीर्थ ने आगन्तुक की ओर मित्र की दृष्टि से देखकर आत्मविश्वास-पूर्वक कहा- 'यहाँ भी मेरे मित्र हैं ।" "कौन हैं ?" यह पूछने पर
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